जोशीमठ नहीं… धर्म, इतिहास प्रकृति की त्रिवेणी मर रही है

जोशीमठ ज्योतिर्मठ का अपभ्रंश या आसान उच्चारण है। इस शब्द को और खोलें तो जोशीमठ उन चार मठों में से एक है जिसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। लेकिन मेरे लिए जोशीमठ होने के मायने सिर्फ यही नहीं हैं। मेरे गांव से जोशीमठ की दूरी 50 किलोमीटर है। दूरी की सीमाओं से अलग यह शहर मेरे लिए एक एल्बम की तरह है। घर से यहां तक पहुंचने की यात्रा हमेशा रोमांच की तरह रही है।

यादें, किस्से, संघर्ष, खुशबू और सबक सबकुछ है जोशीमठ मेरे लिए। पहली बार आसमानी बर्फ को मैंने यहीं छूकर देखा। क्योंकि मेरे गांव में बर्फ काफी लेट और ऊंचाई पर पड़ती थी। जोशीमठ से मेरे रिश्ते का यह एक सच है। चार साल बाद अब जब मैं जोशीमठ गया तो यहां सबकुछ बदला हुआ था। जोशीमठ के भूगोल को बचाने की चीख-पुकार मची हुई थी। दरकते-मरते शहर की चीखती रातें डरा रहीं थीं।

जोशीमठ के मायने अब बदल गए हैं। विकास के धमाकों ने शहर को हिला दिया है। जमीन के भीतर से पानी के बुलबुले या यूं कहें कि आंसू बाहर आ रहे हैं। आंसुओं में आक्रोश और बेचैनी दोनों हैं। मानो कह रहे हों कि यह शहर बर्बाद हो रहा है। बचा लीजिए। जोशीमठ को बचाने की मजबूरी अब तो चारों तरफ है। सरकारों की धूर्त खामोशी टूट गई है। बड़े-सख्त फैसले हाे रहे हैं।

शहर के मिटते अस्तित्व का ऐतिहासिक साक्षी बनने के लिए अब यहां मीडिया भी तैनात है। कुल मिलाकर यह शहर अब एक बड़े इवेंट में बदल गया है। जिसमें सब अपनी हिस्सेदारी तय करना चाहते हैं। लेकिन जोशीमठ पूछ रहा है कि अब क्यों आए, जब आधा शहर दरक चुका है? जब बचाने के लिए बहुत कुछ बचा ही नहीं। विशेषज्ञ कह रहे हैं कि दरारों को रोकने के लिए विज्ञान और तकनीक भी अब कुछ नहीं कर सकती।

जो लोग अब वहां हैं, अब तो उन्हें ही सुरक्षित बाहर निकाल लिया जाए तो गनीमत होगी। सरकार के कामकाज को लेकर क्रोध और आक्रोश के विस्फोट भी चरम पर हैं। कारण- 1976 में गढ़वाल कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा की देखरेख में बनी कमेटी की रिपोर्ट। मिश्रा कमेटी ने 47 साल पहले साफ कह दिया था कि जोशीमठ कभी भी दरक सकता है। इंतजाम भी बताए थे।

ड्रेनेज सिस्टम, ईंट, सीमेंट और बजरी का इस्तेमाल बंद करना, कम ऊंची इमारतें बनाना और सबसे महत्वपूर्ण- पहाड़ों में होते विस्फोटों पर पाबंदी। किंतु शासन-प्रशासन के साजिशाना तालमेल, मौन, छल और धूर्तता ने हाथ बांधे रखे। 47 साल पहले भी जोशीमठ में दरारें आईं थीं और यह कमेटी बनाई ही इसलिए गई थी। यानी जोशीमठ सालों से कांप रहा था, अब पूरी तरह दरक गया है।

जोशीमठ को बचाने की सरकारी फुर्ती 47 सालों से गायब थी। अब एकदम से पूरा लाव-लश्कर दौड़ पड़ा है। लेकिन यह कोई इन्वेस्टमेंट समिट नहीं है, जिसकी रातों-रात तैयारी से पूरा शहर बदलकर चमकाया जा सके। यह प्रकृति है, जिसकी अपनी चाल और ताकत है, जो सरकारों से अलग है। अहम सवाल यह भी है कि बड़ी दाढ़ी वाले पर्यावरण के पद्मश्री भी अब तक कहां थे? उनकी खौफनाक चुप्पी भी काबिल-ए-गौर है।

सत्ता और पर्यावरणविदों के बीच का दोस्ताना सच भी यह कहता है कि सब अपनी सुविधा के अनुसार मुद्दे और सुर्खियां चुनते हैं। उनके लिए मिट्‌टी से ज्यादा मायने माइलेज के हैं, जो उन्हें दिल्ली से देहरादून नहीं आने देता। उनके उद्देश्य और मकसद साफ हैं। जोशीमठ उदास है क्योंकि यह शहर अलग है। शंकराचार्य ने इसे बसाया जबकि कत्यूरी राजाओं की राजधानी जोशीमठ ही रही।

बद्रीनाथ धाम के कपाट जब छह माह बंद रहते हैं तो भगवान नारायण की पूजा यहीं होती है। सामरिक दृष्टि से भी संवेदनशील है जोशीमठ क्योंकि यहां से चीन करीब है। जोशीमठ सिर्फ शहर नहीं है, प्रकृति, इतिहास और धर्मशास्त्र की त्रिवेणी है। सवाल यही नहीं है कि जोशीमठ बचेगा या खत्म हो जाएगा। चिंताएं यह भी है कि विकास के नाम पर सरकारों की कूट-प्रपंची कलंक- कथाएं क्या आगे भी यूं ही जारी रहेंगी?

जोशीमठ विकास की उस ताजा खोदी गई कब्र की तरह है, जहां एक खूबसूरत शहर की लाश दफनाने की तैयारी चल रही है। क्या अब भी यह भरोसा मिलेगा कि इसके बाद किसी और जिंदा शहर को जोशीमठ की तरह विकास की कब्र में नहीं दफनाया जाएगा?

जोशीमठ उदास है क्योंकि यह शहर अलग है। सवाल यही नहीं है कि जोशीमठ बचेगा या खत्म हो जाएगा। चिंताएं यह भी है कि विकास के नाम पर सरकारों की कूट-प्रपंची कलंक- कथाएं क्या आगे भी यूं ही जारी रहेंगी?

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