एक स्त्री का महत्व लुक्स के आधार पर तय नहीं हो सकता

  • जब हमें जीवन जीने के निर्देश नहीं दिए जा सकते तो ब्यूटी के इंस्ट्रक्शंस भी क्यों दिए जाएं?

जब मैं आईने में देखती हूं तो मुझे क्या नजर आता है? यह एक ऐसा सवाल है, जो मैं रोज खुद से पूछती हूं। क्या मुझे एक ऐसी स्त्री दिखलाई देती है, जिसने अपना कॅरियर संवारा है, आठ किताबें लिखी हैं, जो दो प्रसन्न बच्चों की मां है, जिसने 35 से ज्यादा देशों की यात्राएं की है, जो तीन महाद्वीपों में रह चुकी है, पुरस्कार जीत चुकी है, मूवी डील्स साइन कर चुकी है, जो अपना पैसा खुद कमाती है और अपने नियमों पर जीती है? या क्या मुझे अपने शरीर पर वह पांच किलो अतिरिक्त वजन दिखलाई देता है, जिसे मैंने अपने बच्चों, घर, पति, करियर, पैरेंट्स, इन-लॉज़, दोस्तों और कभी न खत्म होने वाले कार्यों की देखभाल, साज-सम्भाल, प्रबंधन करने के फेर में हासिल कर लिया है?

और तब मुझे स्वयं को देख अच्छा लगता है या घृणा जगती है? यह सवाल खुद से भी पूछें कि जब आप आईने में देखती हैं तो क्या दिखलाई देता है? क्या आप किसी पिम्पल को हटा देने के लिए झुकती हैं? क्या आप स्वयं के डील-डौल को देख नाराजगी से गुर्राने लगती हैं? कहीं आपकी सेल्फ-इमेज को इसलिए तो धक्का नहीं लगता, क्योंकि आप सोशल मीडिया सितारों से खुद की तुलना करने लगी हैं, जिनका शरीर तराशा हुआ होता है? क्या इससे आपमें हीन-भावना जागती है? कहीं आप इस बात के लिए तो खुद से नफरत नहीं करने लगती हैं कि आप वैसा जीवन नहीं जी पा रही हैं, जो कभी भी आपकी वास्तविकता नहीं हो सकता था?

अगर हां तो रुक जाइए। परफेक्ट महसूस करने के लिए आपका परफेक्ट दिखलाई देना जरूरी नहीं है। मौजूदा दौर में एक स्त्री का महत्व उसके लुक्स के आधार पर तय नहीं किया जा सकता। वास्तव में, स्त्रियों के लुक्स के प्रति यह जरूरत से ज्यादा लगाव, दूसरी स्त्रियों के शरीर और हमारे अपने शरीर के प्रति यह क्रूर ऑब्सेशन बहुत हैरान कर देने वाला है।

पहले के समय में महिलाओं को इस आधार पर जज किया जाता था कि उन्हें उनके लुक्स के लिए जो निर्देश दिए गए हैं, उन्हें उन्होंने कितना अपनाया है, ताकि उन्हें यह पता रहे कि उन्हें निहारा जा रहा है। लेकिन महिलाओं को कैसा दिखना चाहिए, इसका पहले से तयशुदा मानदंड उन्हें शोषित रखने के लिए पर्याप्त था। क्योंकि जब पुरुष स्त्रियों की सुंदरता के मानकों का निर्धारण करते थे, तब वे स्वयं इन मानकों से मुक्त रहते थे। लेकिन अब यह बदल गया है।

नौजवान पीढ़ी इन बातों को स्वीकार नहीं करती। वह जान चुकी है कि सुंदरता की विषमता के मूल में जो सत्ता-संघर्ष है, उसे सम्भव बनाने वाले सांस्कृतिक मानकों की विदाई जरूरी है। आज हम एक स्त्री के लुक्स को जज करने वाले पुरुषवादी विशेषाधिकार को विसर्जित कर चुके हैं। और इन मायनों में अब स्त्री और पुरुष की सुंदरता के पैमाने भी समान हो गए हैं।

ये सच है कि स्त्रियों को आज भी उनके लुक्स के आधार पर जज किया जाता है, लेकिन इसके साथ ही अब उनकी सोचने की क्षमता, प्रतिभा, आत्मविश्वास, सोशल मीडिया पर प्रभाव या उपलब्धियों आदि की भी ज्यादा कद्र की जाने लगी है। लोग अब इस बात को समझ गए हैं कि हमें अपने शरीर को नहीं, नियमों को बदलने की जरूरत है। यह हमें निश्चय करना चाहिए कि जब हम आईने में देखते हैं तो हमें क्या नजर आता है।

हमारे आत्म-सम्मान को इतनी आसानी से अब झकझोरा नहीं जा सकता। बेहतरीन तरीके से क्यूरेटेड ऑनलाइन-जिंदगी जीने वालों की देह से हम हीन नहीं अनुभव कर सकते। एक स्त्री अपने शरीर और दिमाग को कैसे प्रोसेस करना या नहीं करना चाहती है, यह पूरी तरह से उसका निर्णय है।

इसलिए जब आईने में खुद को देखें तो किसी पिम्पल, बड़ी नाक या बिखरे बालों को न देखें, बल्कि उस समग्र को निहारें, जिसने आपके अस्तित्व को उतना ही सम्पूर्ण बनाया है, जितनी कि आप हो सकती थीं। इन्हीं शब्दों के साथ आगामी स्त्री-दिवस की सभी को शुभकामनाएं।

कहीं आपकी सेल्फ-इमेज को इसलिए तो धक्का नहीं लगता, क्योंकि आप सोशल मीडिया सितारों से खुद की तुलना करने लगी हैं, जिनका शरीर तराशा हुआ होता है? क्या आपमें हीन-भावना जागती है?

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *