जन-जागरूकता और अल्पसंख्यकों को विश्वास में लेना जरूरी
समान नागरिक संहिता लागू करना समय की मांग ही नहीं, अपितु संविधान का मान भी है। जो अनुच्छेद इतने वर्षों से उपेक्षित रहा, उसे लागू करने का यह उचित अवसर है।
समान नागरिक संहिता: धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का पालन करते हुए लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने का मार्ग प्रशस्त होगा
समान नागरिक संहिता इस विचार पर आधारित है कि सभ्य समाज में धर्म और व्यक्तिगत कानून के बीच कोई संबंध नहीं होता है। इसमें विवाह-तलाक, पालन-पोषण, बच्चों को गोद लेने, संरक्षकता-विरासत और संपत्ति के उत्तराधिकार जैसे सभी विषयों को धर्मों-जातियों-समुदायों के लिए समान रूप से लागू किया जाता है। समानता बंधुत्व सिखाती है। नागरिक कानूनों में भी समरूपता लाने के लिए समय-समय पर न्यायपालिका ने अपने निर्णयों में पुरजोर आवाज उठाई है और सलाह दी है कि सरकार को समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस प्रयास ईमानदारी से करने चाहिए।
प्रश्न उठता है कि धर्मनिरपेक्ष-गणराज्य में धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियम क्यों हो? एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून क्यों नहीं हैं? क्या धार्मिक प्रथाओं का संवैधानिक संरक्षण मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं होना चाहिए? एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को बल देने में आपत्ति क्यों? व्यक्तिगत कानूनों में मौजूदा लैंगिक पक्षपात का पक्षधर कौन है? इस प्रकार के धार्मिक भेदभाव को समाप्त करना और समानता को बढ़ाना एक राष्ट्रीय प्राथमिकता होनी चाहिए। आखिर जब एक है संविधान तो क्यों न हो एक विधान? समय की नजाकत है कि समान नागरिक संहिता को केवल सांप्रदायिकता के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। सभी व्यक्तिगत कानूनों के पूर्वाग्रह और रुढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जाना चाहिए। धार्मिक रूढ़िवादी दृष्टिकोण की बजाय समान नागरिक संहिता को चरणबद्ध तरीके से लोकहित के रूप में स्थापित किया जाना अपेक्षित भी है और आवश्यक भी। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना प्रयोजनीय है और यह प्रक्रिया न्यायिक प्रणाली को अत्यधिक सरल-सहज बनाने में मील का पत्थर साबित होगी, क्योंकि आज प्रतिस्पर्धा के दौर में समानता ही सफलता व शांति का सिद्धांत है। समानता से ही हर वर्ग को सक्षम बनाया जा सकता है और उसका विकास किया जा सकता है। भारत जैसे विविधतापूर्ण, वैभवशाली व विकासशील देश में जहां विभिन्न धर्म-जाति के लोग रहते हैं, सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। धर्मनिरपेक्ष-गणराज्य के लिए यह अपरिहार्य है कि धर्म के आधार पर भेदभाव न हो। इस संबंध में भारतीय विधि आयोग ने सार्वजनिक सूचना के माध्यम से जनता और धार्मिक संगठनों से विचार आमंत्रित करने की पहल भी की है। समान नागरिक संहिता से देश में विभिन्न धर्मों के लोगों में धार्मिक मतभेदों को कम करने में मदद मिलेगी, कमजोर वर्गों को सुरक्षा मिलेगी, कानून सरल होंगे।
समान नागरिक संहिता धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का पालन करते हुए लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने का मार्ग प्रशस्त करेगी। इसके लिए लोकतांत्रिक सरकार को जन जागरूकता के लिए काम करना होगा। विशेषकर अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को दूर करना होगा और उन्हें आश्वस्त करना होगा कि उनके अधिकारों का उल्लंघन किसी भी सूरत में नहीं किया जाएगा।
भारत की ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सत्यापित व संवैधानिक आत्मा समानता ही तो है। फलत: भारत जैसे विविधतापूर्ण, विकासशील, विशालकाय देश में समान नागरिक संहिता लागू करना समय की मांग ही नहीं अपितु संविधान का मान भी है। जो अनुच्छेद इतने वर्षों से एक उपेक्षित बना हुआ है, उसे लागू करने का अब उचित अवसर आ गया है। निस्संदेह, यह सरकार और प्रत्येक हितधारक के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा, परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आम जनता को इसमें अपना योगदान देना चाहिए और इसके बारे में अपने बहुमूल्य सुझाव प्रदान कर इस राष्ट्रव्यापी यज्ञ में अपनी पुण्य-आहुति देनी चाहिए, ताकि संविधान में मौजूद समानता का प्रकाश चारों ओर फैले। समान नागरिक संहिता वास्तव मे ‘एक भारत – श्रेष्ठ भारत’ की प्रतिध्वनि ही तो है, जिसका मूल उद्देश्य नियम संहिता को एक समान करना है, ताकि समता का सबको गुमान हो, हर मजहब का मान रहे पर, पहला मजहब संविधान हो। इससे देश की एकता और अखंडता को मजबूती मिलेगी।