राजनीति …. सच की खेती कोई नहीं करना चाहता…

राजनीति, राहुल से गांधी तक; सच के भी बीज होते हैं पर सच की खेती कोई नहीं करना चाहता…

और महात्मा गांधी, आजादी की रोशनी में जगमगा रही दिल्ली से हजार किलोमीटर दूर कोलकाता के पास लाशों के बीच सुबक रहे थे। सच रो रहा था… और झूठ का राजतिलक हो रहा था। इधर हिंदुस्तान में… उधर पाकिस्तान में।

गांधी जी से तब एक बीबीसी संवाददाता ने
पूछा था- आप दुनिया के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे? जवाब में गांधी जी ने कहा- भूल जाओ कि गांधी अंग्रेजी जानता है!
इस जवाब में केवल भाषा से मतलब नहीं है, उस अंग्रेजीयत से भी है जिसने लोगों को बांटा, आपस में लड़ाया और गरीबों-मजबूरों पर अत्याचार किए।
अफसोस कि आजादी के 76 साल बाद भी गांधी जी की इस भावना का सम्मान किसी ने नहीं किया। न नेताओं ने, न राजनीतिक दलों ने। जबकि हर राजनीतिक दल गांधी के नाम पर वोट जरूर कबाड़ना चाहता है। पूजता भी है लेकिन उनका अनुसरण नहीं करता।

सच है, जिस तरह आक के फूल उड़कर जहां जाते हैं, वहीं उग आते हैं, उसी तरह सच के भी बीज होते हैं और वह भी जहां उड़कर जाता है, वहीं उग आता है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आजकल सच की खेती कोई नहीं करना चाहता!

अब आते हैं राहुल गांधी पर। चार महीने बाद ही सही, उन्हें लोकसभा में आने का अवसर मिल ही गया। बेशक, निचली अदालतों ने चार महीने उनके होंठ सिल दिए थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आखिर वह सीवन उधेड़ी और मुंह खोल दिया। ये बात और है कि निचली अदालत के फैसले के बाद राहुल को सांसद पद से बर्खास्त करने में जो जल्दबाजी दिखाई गई थी, उतनी ही जल्दी में उनकी सदस्यता बहाल भी कर दी गई।

सवाल यह उठता है कि सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद जो राहुल की वापसी हुई है, इसका फायदा कांग्रेस को होगा या नहीं? होगा तो कितना? निश्चित ही कांग्रेस के लिए यह सुनहरा मौका है, लेकिन लगता है इस पार्टी में नेतृत्व का संकट जो बहुत पहले से खड़ा हुआ है, वह लगभग स्थायित्व की तरफ जा रहा है। क्योंकि जब राहुल की सदस्यता गई, मौका तो तब भी था, लेकिन एक-दो दिन के मामूली प्रदर्शनों के बाद सारे नेता-कार्यकर्ता घर बैठ गए थे।

कांग्रेस का नेतृत्व कभी राजस्थान का गहलोत-पायलट विवाद सुलझाने में उलझा रहा तो कभी अजय माकन की भूमिका मापने में लगा रहा। पार्टी को जो सहानुभूति मिलनी थी, वह नहीं मिल पाई। इतना जरूर तय है कि इस पूरे घटनाक्रम से सत्तारूढ़ भाजपा कुछ हद तक दबाव महसूस कर रही है। इस दबाव के कई कारण हैं।

पहला और सबसे बड़ा कारण है मणिपुर। तीन महीने से मणिपुर जल रहा है और कार्रवाई, खासकर राजनीतिक कार्रवाई के नाम पर वहां कुछ नहीं किया गया। हर कोई जानता है कि अगर मणिपुर में दूसरे किसी दल की सरकार होती तो चार-छह दिन में ही वहां राष्ट्रपति शासन लग चुका होता। यहां तो निर्वस्त्र महिलाओं का वीडियो वायरल होने पर भी राज्य सरकार के कानों में जूं नहीं रेंगी, जबकि इस घटना की रिपोर्ट वहां के थाने में ढाई महीने पहले लिखी जा चुकी थी।

खैर, दबाव का दूसरा कारण है- इंडिया। ये इंडिया उस संगठन के नाम का शॉर्ट फॉर्म है, जो छब्बीस विपक्षी दलों ने मिलकर हाल में बनाया है। सत्ता पक्ष की परेशानी यह है कि वह इंडिया का विरोध आिखर कैसे करे? वो तो देश का नाम है।

देश से याद आया- हाल में एक याचिका कोर्ट में दाखिल की गई है। याचिकाकर्ता को इंडिया नाम पर आपत्ति है। कहा यह गया है कि राजनीतिक दलों के संगठन का नाम इंडिया रखना गलत है क्योंकि यह एम्ब्लम एण्ड नेम्स एक्ट का उल्लंघन है। वास्तव में एम्ब्लम एक्ट 1950 के अनुसार कोई भी व्यक्ति या संस्था देश के नाम और उसके कुछ मान्य प्रतीकों का व्यावसायिक उपयोग बिना केंद्र सरकार की अनुमति के नहीं कर सकता।

अब यह कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि राजनीतिक दलों द्वारा किए गए या किए जाने वाले काम बिजनेस या व्यावसायिक हैं या नहीं! अगर हैं तो सभी दल ये मानें कि वे लोगों और देश की सेवा करने की बजाय व्यापार या व्यवसाय कर रहे हैं!

बहरहाल। सत्ता पक्ष पर दबाव का तीसरा कारण है राहुल गांधी के खिलाफ केस। इस पूरे केस में आगे चलकर कांग्रेस या राहुल को कितना फायदा होगा, यह तो उनकी खुद की कोशिशों पर निर्भर करेगा लेकिन इतना तय है कि फिलहाल तो राहुल के प्रति पॉजििटविटी बनी ही है।

वैसे, लोकसभा में इन दिनों विश्वास और अविश्वास की जंग छिड़ी हुई है। अब तक गलियों, पहाड़ों और घाटियों में रेंगता हुआ मणिपुर अब लोकसभा में सुबक रहा है। विपक्षी तमाम वक्ता मणिपुर पर बोल रहे हैं। सत्ता पक्ष के वक्ताओं ने पहले दिन मणिपुर का नाम तक नहीं लिया, जबकि यह अविश्वास प्रस्ताव मणिपुर मुद्दे पर ही लाया गया है।

छिड़ी हुई है विश्वास और अविश्वास की जंग…
लोकसभा में विश्वास और अविश्वास की जंग छिड़ी है। अब तक गलियों, पहाड़ों, घाटियों में रेंगता मणिपुर अब लोकसभा में सुबक रहा है। विपक्षी वक्ता मणिपुर पर बोल रहे हैं। सत्ता पक्ष ने पहले दिन मणिपुर का नाम तक नहीं लिया।

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