प्रत्याशियों के चयन में धनबल और बाहुबल भी महत्त्वपूर्ण

राजनीति: आगामी लोकसभा चुनावों के लिए राजनीतिक दल सक्रिय …

भाजपा तीन राज्यों में मिले भारी जन-समर्थन से प्रफुल्लित है।विपक्षी दल कई तरह की उलझनों में हैं…

लोकतंत्र में चुनाव की अहमियत निर्विवाद है। भारत की 18वीं लोकसभा लिए चुनाव के लिए सरगर्मी शुरू हो चुकी है। सभी राजनीतिक दल चुनाव की तैयारी करने लगे हैं। देश की संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली में जनता अपने प्रतिनिधि चुनती है जो शासनतंत्र संचालित करने के लिए सरकार बनाते हैं। चुनाव का आकार-प्रकार जिस तरह विशाल होता गया है, उसी अनुपात में निर्वाचन आयोग का काम भी जटिल हो गया है। चुनाव प्रबंधन पर भी भारी खर्च होता है। इसके लिए जरूरी मानव-संसाधन और तकनीकी व्यवस्था सुनिश्चित कर पाना बड़ी चुनौती होती है। जिस बड़े पैमाने पर देश में चुनाव होते हैं, उस हिसाब से चुनावी कामकाज काफी हद तक संतोष का विषय है। साथ ही बहुत हद तक उसकी विश्वसनीयता बरकरार है।

चुनाव के आयोजन को लेकर गाहे-बगाहे बहुत सारे सवाल भी उठते रहे हैं। विधानसभा और लोकसभा दोनों के चुनाव एक साथ आयोजित हों, इसकी चर्चा भी शुरू हुई थी पर किसी मुकाम पर नहीं पहुंची। इसी तरह चुनाव खर्च को लेकर स्थिति इस अर्थ में बड़ी ही नाज़ुक है कि रैलियां, सभाएं और रोड शो प्रचार का खास हिस्सा बन रहे हैं। सोशल मीडिया का भी चुनाव प्रचार में उपयोग खूब बढ़ रहा है। इन सबके चलते चुनाव लड़ना पैसों का खेल होता जा रहा है। कुल मिला कर बेहद खर्चीली होती जा रही चुनावी संस्कृति चुनाव में जन-भागीदारी के दायरे को सीमित और संकुचित करती जा रही है। सुराज और स्वराज्य की परिकल्पना से दूर होती राजनीति का कलेवर जनता और प्रजा की जगह रसूख वाले धन कुबेरों की भागीदारी पर टिकने लगी है। अब राजनीति की आंतरिक शक्ति व्यर्थ होती जा रही है। उसकी जगह वह प्रायोजित होती जा रही है।

निर्वाचन आयोग ने लोकसभा के चुनाव में एक प्रत्याशी को 95 लाख रुपए तक खर्च करने की वैधानिक छूट दे दी है। एक प्रत्याशी का वास्तविक खर्च बहुत ज्यादा हेाता है। ऐसे में प्रत्याशियों की सूची में घोषित करोड़पतियों की संख्या यदि दिन प्रतिदिन बढ़ रही है तो आश्चर्य की बात नहीं है। चुनाव के दौरान खास तौर पर आचार-संहिता लगने के बाद पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भारी राशि जब्त हुई और अवैध शराब पकड़ी गई। राज्यसभा में धनाढ्य लोगों को संसदीय सीट देने का चलन कमोबेश हर पार्टी में दिखता है। सत्ता और संपदा का तालमेल स्वाभाविक है पर जन सम्पदा हथियाना और जैसे-तैसे रुपए पैसे जुटाने के धंधे में शामिल होना खतरनाक है। बाजार की शक्तियां राजनीति पर बुरी तरह हावी होती जा रही हैं।

इसी तरह राजनीति में चरित्र, योग्यता, समाज-सेवा आदि को दरकिनार किया जा रहा है। प्रत्याशी की आपराधिक पृष्ठभूमि भी अब राजनीति में अस्पृश्य नहीं रही। विधानसभा हो या लोकसभा, वहां अपराध में संलिप्त दागी नेताओं की संख्या कम न हो कर बढ़ती ही जा रही है। अपराध सिद्ध नेता राजनीति का दिग्दर्शन कर रहे हैं। ये सारी स्थितियां हमारे सामाजिक स्वास्थ्य के बिगड़ने का संकेत करती हैं। गरीबों, दुर्बल वर्गों, महिलाओं तथा जन-जातियों का प्रतिनिधित्व भी समुचित मात्रा में नहीं होता है। जाति, उपजाति, क्षेत्र, पंथ या धर्म की चेतना को उभार कर वोट बटोरने में किसी को कोई गुरेज नहीं है। इस तरह पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर प्रत्याशी चुनने में कोई दल किसी से कम नहीं दिखता। अच्छे, चरित्रवान और प्रबुद्ध जन राजनीति से दूर रहने में ही कल्याण देखते हैं।

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अपने लाभ-हानि का हिसाब लगा कर बिसात बिछाने लगे हैं। भाजपा तीन राज्यों में मिले भारी जन-समर्थन से प्रमुदित और प्रफुल्लित है। दूसरी ओर विपक्षी दल कई तरह की उलझनों से उबर नहीं पा रहे हैं। ‘इंडिया’ गठबंधन तले इकट्ठे हो रहे विभिन्न राजनीतिक दल अनेक मुद्दों पर भिन्न मत रखते हैं और विचारधाराओं में बड़ा भेद हैं। सभी सत्ता पक्ष को मात देने की लालसा में तो एक साथ हैं पर उनके अपने अपने हितों की अलग-अलग सूचियां हैं।

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