रिश्तों में कैसे दूर हो लड़ाई-झगड़ा, मनमुटाव ?

रिश्तों में कैसे दूर हो लड़ाई-झगड़ा, मनमुटाव ….इंपैथी से रोमांटिक और प्रोफेशनल रिश्ते मजबूत; बुद्ध, गांधी, आइंस्टीन ने कहा, करुणा रखो

-अल्बर्ट आइंस्टाइन

दुनिया में सफलता के तमाम पैमाने हैं। उनमें से एक यह भी है कि आपके कितने यार-दोस्त हैं, कितने लोगों से आपके अच्छे रिश्ते हैं और कितने मुश्किल वक्त में आपकी मदद के लिए तैयार रहते हैं।

ये दुनिया बहुत बड़ी है और हसरतें अनंत। सारी हसरतें पूरी भी कहां हो पाती हैं। चाह होती है कि रोमांटिक रिश्ता हीर-रांझा सरीखा हो, हकीकत में बहसबाजी और मनमुटाव मिलता है। चाह होती है कि ऑफिस में सबके चहेते बनें पर हकीकत में वर्कप्लेस की टॉक्सिक पॉलिटिक्स मिलती है। चाह बिना शर्त प्रेम करने वाले दोस्तों की होती है, लेकिन मुश्किल वक्त में कोई नजर नहीं आता।

स्टोरी में आगे बढ़ने से पहले ही यह जान लीजिए कि अब इन हसरतों को हकीकत में बदलना मुश्किल नहीं है। ऐसा हम नहीं, इंसानी मनोविज्ञान पर रिसर्च करने वाले कह रहे हैं। उन्होंने ‘इंपैथी’ का एक आसान फंडा दिया है, जिसके सहारे हर तरह के रिश्ते को सींचा जा सकता है, झगड़े को रोका और मनमुटाव को दूर किया जा सकता। यह जानना भी रोचक है कि अमेरिकी रिसर्च में जिस ‘इंपैथी’ के जो फायदे गिनाए गए हैं, वह जैन दर्शन और वेदों में हजारों साल पहले लिखे जा चुके हैं।

आज ‘रिलेशनशिप’ कॉलम में हम इसी ‘इंपैथी’ के मनोविज्ञान की बात करेंगे और जानेंगे कि कैसे इसके सहारे रिश्ते की पौध को हरा-भरा रखा जा सकता है।

क्या है इंपैथी, जिंदगी में इसे कैसे बरतें

इंपैथी को समझने और बरतने के लिए एक छोटी कवायद करते हैं। किसी के बारे में आपकी राय होगी कि ‘फलां तो बहुत बुरा है।’ लेकिन एक पल ठहरिए और जरा उस शख्स की जगह खुद को रखकर सोचिए। उसकी नजर से चीजों को देखने की कोशिश करिए। क्या वह शख्स अब भी आपको उतना ही बुरा नजर आता है।

जाहिर सी बात है, ऐसा नहीं होगा। यह भी याद रखिए कि वह शख्स भी आपके बारे में कमोबेश यही राय रखता होगा, लेकिन अगर वह भी आपकी नजर से सोचे तो आपके प्रति उसके मन में सॉफ्ट कॉर्नर आएगा।

कैसे काम करता है इंपैथी का मनोविज्ञान

हम क्या सोचते या करते हैं, ये सबकुछ हमारे न्यूरॉन्स तय करते हैं। यह पूरे शरीर में घूमने वाले इलेक्ट्रिक सेल होते हैं। हमारी आंखों के सामने जो कुछ भी आता है, मिरर न्यूरॉन्स, हमें वैसा ही मूड बनाने की सलाह देते हैं। यही वजह है कि किसी को जम्हाई लेते देखकर जम्हाई आती है, हंसी की लड़ियां लगती हैं, किसी को रोते देख आंसू रोकना मुश्किल हो जाता है।

यह सजह मानवीय प्रवृत्ति है। प्रकृति ने इंसानों में पर्याप्त मात्रा में मिरर न्यूरॉन्स दिए हैं, जो उन्हें दूसरों के सुख-दुख को समझने की शक्ति देते हैं। लेकिन दिक्कत तब आती है, जब लोग गुस्से या अहंकार की वजह से इन मिरर न्यूरॉन्स को नजरअंदाज करते हैं। दूसरों की स्थिति-परिस्थिति को समझने की कोशिशें नहीं करते। ऐसी स्थिति में रिश्ता बिगड़ना तय हो जाता है।

जैन दर्शन का स्यादवाद और हाथी की कहानी

अमेरिका-यूरोप के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की गहन रिसर्च के बाद ‘इंपैथी’ का मनोविज्ञान हम लोगों तक पहुंचा है। लेकिन हजारों साल पहले भी हमारे आपके पूर्वज खुशियों की इस थ्योरी से भलीभांति परिचित थे।

जैन जर्शन में स्यादवाद का खूब जिक्र मिलता है। आसान भाषा में इसका मतलब है ‘शायद वाद’, यानी कोई दावा नहीं कि यह बात दुनिया का अंतिम सत्य है और मैं ही हमेशा सही हूं।

जैन दर्शन में इसके लिए हाथी और कुछ अंधे लोगों की एक कहानी सुनाई जाती है। एक बार कुछ अंधे लोग एक हाथी के सामने पड़ गए। किसी ने हाथी के पैर को टटोलकर कहा कि यह एक खंभा है, पूंछ पकड़ने वाले ने उसे एक रस्सी कहा, कान पकड़ने वाले ने बड़ा पंखा और पेट पकड़ने वाले ने दीवार।

सबके अपने-अपने दावे थे, जबकि सच कुछ और था।

आपसी रिश्ते में भी ऐसा ही होता है। जब कोई शख्स बात का एक सिरा पकड़कर बैठ जाए और उसे ही दुनिया का अंतिम सत्य मानने लगे तो उसकी स्थिति उसी अंधे इंसान जैसी होती है, जो हाथी की पूंछ पकड़कर उसे रस्सी बता रहा होता है।

ऐसी स्थिति में स्यादवाद, यानी इंपैथी काम आती है। हमेशा अपनी बातों, अपनी सोच और धारणा पर अड़ने की जगह दूसरों के नजरिए को समझना, उसकी बातों को ध्यान देकर सुनना, चीजों को वृहद तरीके से समझने में मददगार हो सकता है। ऐसी स्थिति में आपसी रिश्ते में किसी तरह के मनमुटाव की भी आशंका भी कम हो जाएगी।

अगर आपने साइंस की पढ़ाई की है तो आप जैन दर्शन के इस फलसफे और आइंस्टाइन की ‘थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी’ में संबंध जोड़ पाएंगे।

उपनिषद की नेति-नेति और वैदिक इंपैथी का तरीका

जैन दर्शन के स्यादवाद से ही मिलता-जुलता एक और इंपैथिक कॉन्सेप्ट उपनिषद में भी मिलता है। उपनिषदों में ‘नेति-नेति’ की अवधारणा है, जिसका अर्थ है कि यह भी नहीं है, वह भी नहीं है। किसी बात को आखिरी फैसला और अंतिम सत्य नहीं मानना, आसपास के माहौल और दूसरों के मुताबिक खुद को ढालना, इंपैथी बरतना ही है- ‘नेति-नेति’।

अंत में, हम सभी को लगता है कि हमारी बातें ही सही हैं और जमाना इसके खिलाफ। अपनी कही बात को सही साबित करने के चक्कर में लोग रिश्ते-नाते तोड़ बैठते हैं, दोस्ती दुश्मनी में बदल जाती है। ऐसे में जरूरी है कि इंपैथी की भावना रखी जाए, दूसरों की बातें सुनकर उसके नजरिए को समझने की कोशिश की जाए। हमारे पुरखों ने इसी फलसफे को समझते हुए कहा था- ‘एकं सत्त विप्रा बहुधा वदंति’ यानी, सच तो एक ही है, लेकिन लोग उसे अलग-अलग तरीके से देखते हैं। इसलिए उचित है कि इंपैथी के सहारे दूसरों के सच को भी समझा जाए और रिश्ते को मजबूत बनाया जाए।

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