सोशल मीडिया के जरिए उभर रही है न्याय की नई संस्कृति !
सोशल मीडिया के जरिए उभर रही है न्याय की नई संस्कृति
क्या इंसान की जिंदगी सस्ती होती है? या इंसान नहीं तो कम से कम वेतनभोगी वर्ग के जीवन की कीमत नहीं है? शक्तिशाली और अमीर लोगों की तुलना में क्या वो कमतर हैं? तब उनके प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी किसकी है? पुणे में कुछ समय पूर्व हुई पोर्श हादसे वाली घटना इन्हीं सब सवालों को जन्म देती है।
यह मामला हर पल उलझता चला गया था। ऐसा लग रहा था, जैसे किसी क्राइम-नॉवल के ब्योरे लिखे जा रहे हों, क्योंकि उन्हें सिस्टम की सभी खामियों के बारे में पहले से ही पता था। सबूतों से छेड़छाड़ से लेकर जालसाजी, अपहरण, धमकी, रिश्वत, फरारी तक- इस मामले ने हमारे सिस्टम में परिवार, न्यायपालिका, पुलिस, मेडिकल, सेवा क्षेत्र सभी जगह मौजूद सड़ांध का पिटारा खोल दिया। ये सभी ‘ब्रैट-कल्चर’ (उद्दंडों की संस्कृति) के दायरे में नजर आए।
लेकिन एक अच्छी बात भी है, जिसमें इसका समाधान है। याद रखें कि अगर सोशल मीडिया नहीं होता तो यह मामला भी एक और ‘दुर्घटना’ के रूप में बंद हो जाता। लेकिन अब ट्रायल-बाय-मीडिया की शक्ति न्याय को युक्तिसंगत बनाए रखती है और आशा बंधाती है।
देश के युवा कैंसल-कल्चर से ज्यादा इसमें रुचि रखते हैं कि चीजों के सकारात्मक परिणाम कैसे मिलें। और यही कारण है कि पुणे का मामला ‘ब्रैट-कल्चर’ के अंत का संकेत दे सकता है। यदि आप अपराध करते हैं, तो सोशल मीडिया सुनिश्चित करेगा कि आपको सजा मिले! युवाओं के पास यही शक्ति है।
चाहे आप कोई भी हों, जो भी करते हों, आप सबसे अमीर और सबसे शक्तिशाली लोगों को भी उनके किसी अपराध के लिए घुटनों पर ला सकते हैं। परिपक्व होने का एक हिस्सा यह सीखना है कि हम जो कुछ भी करते हैं, उसके परिणाम भी हमें ही भुगतने हैं।
याद रखें, कोई भी यह नहीं कह रहा है कि अपनी धन-दौलत से सुख-सुविधाओं का आनंद न लें। आग्रह इतना ही है कि इसे जिम्मेदारी के साथ करें, दूसरों के जीवन और आजीविका की कीमत पर इसे न होने दें। बड़ी ताकत के साथ बड़ी जिम्मेदारी भी आती है।
सोशल मीडिया को वह सुधार करने दें, जिसमें हमारी न्यायपालिका, समाज और हमारे परिवार पूरी तरह से कर पाने में असमर्थ रहे हैं। सच कहूं तो पुणे की घटना 1970 के दशक की बॉलीवुड मसाला फिल्मों की याद दिलाने वाला थी, जिसमें एक बिगड़ैल अमीरजादा मजदूर वर्ग को कुचल देता है, और सिस्टम उसको दंडित करने के बजाय उसके सुपर-रिच होने के कारण उसे दुलारता है।
कड़वी सच्चाई यह है कि भारत में कोई भी कानून से नहीं डरता। अगर ऐसा होता, तो ऐसी स्थिति निर्मित नहीं होती, जिसमें माता-पिता अपने 17 वर्षीय बेटे को पोर्श जैसी कार उपहार में देते और उसे लाइसेंस न होने के बावजूद गाड़ी चलाने की अनुमति देते। न ही वे उसे अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने के लिए बेशुमार पैसा देते (इतना पैसा, जो मजदूर वर्ग के महीनों के वेतन के बराबर है)।
इतना ही नहीं, उन्होंने अपने बेटे को यह भी सिखाया कि अगर उसके हाथों कोई अनर्थ हो जाए, तो सिचुएशन को कैसे हैंडल करना है। लेकिन क्या उन्होंने उसे पीड़ितों के परिवार से माफी मांगने की मानवता और बुनियादी शालीनता भी सिखाई? नहीं! इस मामले में तीन व्यवस्थागत विफलताएं सामने आई थीं- व्यक्तिगत, सामाजिक, कानूनी। लड़कों को कानून-व्यवस्था, समाज-परिवार द्वारा दंड से मुक्ति दी जाती है, इसीलिए वे बड़े होकर अपराधी बनते हैं।
हम बेहतर परवरिश कैसे कर सकते हैं? कानूनी खामियों को कैसे रोक सकते हैं? हम इस भयावह मामले को उन सभी लोगों के लिए चेतावनी की कहानी में कैसे बदल सकते हैं, जो सोचते हैं कि वे कानून से ऊपर हैं? जो पैसे और भ्रष्टाचार में इतने अंधे हो गए हैं कि उन्हें लगता है कि वे जो चाहे कर सकते हैं और उन्हें कुछ नहीं होगा? उन लोगों को दंडित कैसे करें, जो समाचारों का शोर खत्म होने के बाद बच निकलते हैं? सोशल मीडिया से इन सवालों के जवाब निकल रहे हैं।
युवाओं के पास सोशल मीडिया के माध्यम से आज एक शक्ति आ गई है। चाहे आप कोई भी हों, जो भी करते हों, आप सबसे अमीर और शक्तिशाली लोगों को भी उनके किसी अपराध के लिए घुटनों पर ला सकते हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)