केक में मिले कैंसर वाले तत्व …?

केक में मिलाए केमिकल से कैंसर का खतरा, कर्नाटक में फेल सैंपल से उठे सवाल, क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
खाने की चीजों में केमिकल मिलाया जाना अब आम होता जा रहा है. कभी सब्जी तो कभी फलों में केमिकल मिलाने के मामले सामने आते रहते हैं. अब केक में भी केमिकल होने की बात सामने आई है. कर्नाटक के फूड सेफ्टी एंड क्वालिटी डिपार्टमेंट की जांच में केक के सैंपलों में केमिकल मिले हैं. जिनसे कैंसर का खतरा हो सकता है.
केक में मिलाए केमिकल से कैंसर का खतरा, कर्नाटक में फेल सैंपल से उठे सवाल, क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स
क्या केक खाने से कैंसर हो सकता है?Image Credit source: Getty images

कर्नाटक में फूड सेफ्टी एंड क्वालिटी डिपार्टमेंट ने दुकानों से केक के कुछ सैंपल लिए थे. सैंपलों की जांच में पता चला है कि केक में आर्टिफिशियल रंगों का यूज किया जा रहा है. ये रंग सेहत के लिए खतरनाक हैं और कैंसर का कारण बन सकते हैं. इस मामले के बाद एक बड़ा सवाल यह है कि केक तो लगभग हर व्यक्ति ने कभी न कभी खाया है और लोग खाते ही हैं, तो क्या केक खाने से कैंसर हो सकता है? इस बारे में एक्सपर्ट्स से जानते हैं.

कैंसर सर्जन डॉ अनुराग कुमार बताते हैं कि कर्नाटक में फूड डिपार्टमेंट की जांच में पता चला है की केक में सनसेट येलो एफसीएफ, एल्यूरा रेड मिलाया जा रहा है. केक को अच्छा रंग देने के लिए इनका यूज किया जा रहा है. ये रंग कार्सी जेनिक एजेंट्स होते हैं जो कैंसर का कारण बन सकते हैं. केक के सैंपल में सनसेट येलो एफसीएफ मिला है. तो ये खतरनाक हो सकता है. क्योंकि Yellow FCF एक सिंथेटिक कलर है जिसका यूज खाद्य पदार्थों में रंग बढ़ाने के लिए किया जाता है. इस मामले में कई रिसर्च हो चुकी है की सनसेट येलो एफडीएफ के सेवन से कैंसर हो सकता है. हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अध्ययनों ने सनसेट येलो एफसीएफ से कैंसर का रिस्क नहीं बताया गया है, लेकिन अगर केक में तय मानक से ज्यादा केमिकल मिलाए जा रहे हैं तो इससे कैंसर होने की आशंका रहती है.

इससे ज्यादा मिलाया कलर तो कैंसर का खतरा

डॉ कुमार के मुताबिक, 1 किलोग्राम केक में 100 mg से अधिक कलर नहीं मिलाना चाहिए. खासतौर पर सनसेट येलो FDF को तो किसी भी हाल में इससे ज्यादा नहीं मिलाना चाहिए. अगर ऐसा करते हैं तो इससे कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है. ऐसा इसलिए क्योंकि अगर इन केमिकल को ज्यादा मिलाया जाता है तो जब कोई व्यक्ति केक खाएंगा तो उसके शरीर में केमिकल की मात्रा बढ़ेगी. इससे कैंसर का रिस्क हो सकता है. ये इम्यून सिस्टम से संबंधित बीमारी का भी कारण बन सकता है. हालंकि इसका मतलब यह नहीं है कि केक खाने वालों को कैंसर हो सकता है या जिन्होंने केक खाया है उनको कैंसर का खतरा है. इस बीमारी का रिस्क तभी होगा जब जरूरत से ज्यादा केमिकल मिलाया जा रहा हो आप कई सालों से ऐसे केक को खा रहे हों.

दिल्ली में वरिष्ठ फिजिशियन डॉ अजय कुमार बताते हैं कि अगर केक का रंग ज्यादा चमकदार है, या इसकी गंध अजीब है, तो यह केमिकल होने का संकेत हो सकता है. अगर केक की पैकेजिंग पर किसी प्रकार के केमिकल का नाम दिया गया है, तो इसकी जांच करें और पढ़ें की ये केमिकल किस लिए मिलाया गया है. यदि केक के पैकेज पर किसी प्रमाणीकरण एजेंसी की मुहर है, तो यह अच्छा संकेत है. अगर नहीं है तो ऐसा केक लेने से बचें.

पहले भी लिए गए सैंपल मिले थे फेल

कुछ समय पहले कर्नाटक में कॉटन कैंडी, गोभी मंचूरियन पर पाबंदी लगाई जा चुकी है. इन फूड्स को बनाने के दौरान इनमें रोडामाइन बी केमिकल मिलाने की जानकारी सामने आई थी. ये एक कमेकिल होता है जिससे खाने की चीजों को लाल रंग दिया जाता है. जांच में पता तला था कि कॉटन कैंडी और गोभी मंचूरियन को रंग देने के लिए रोडामाइन केमिकल डाला जाता है. ये केमिकल शरीर में कैंसर का कारण बन सकते हैं. इसी वजह से कर्नाटक में इन फूड्स पर पाबंदी लगी थी.

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कर्नाटक में केक में मिले कैंसर वाले तत्व …
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कर्नाटक की स्थानीय बेकरियों में बन रहे केक में कैंसर पैदा करने वाले तत्व मिले हैं। इस बाबत कर्नाटक सरकार ने राज्य की सभी बेकरियों को चेतावनी जारी की है। इसमें कहा गया है कि बेकरियां सेफ्टी स्टैंडर्ड का कड़ाई से पालन करें या उन पर सख्त एक्शन लिया जाएगा।

हाल ही में कर्नाटक फूड सेफ्टी और क्वालिटी डिपार्टमेंट ने लोकल बेकरियों में बन रहे 235 केक की सैंपल टेस्टिंग की। इनमें से 12 केक में कार्सिनोजेनिक तत्व मिले हैं। कार्सिनोजेन्स ऐसे तत्व होते हैं, जिनके कारण कैंसर हो सकता है।

इसमें चिंता की बात ये है कि हमारे फवेरेट केक- रेड वेलवेट और ब्लैक फॉरेस्ट में कार्सिनोजेन होने का अधिक जोखिम होता है। दरअसल केक को गाढ़ा, चमकदार लाल और चॉकलेटी रंग देने के लिए आर्टिफिशियल कलर्स का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा इनमें फ्लेवर वाले स्वाद के लिए खतरनाक केमिकल्स मिलाए जाते हैं, जो जान के लिए जोखिम बन जाते हैं। सवाल है कि केक सिर्फ कर्नाटक में नहीं बिक रहे हैं, ये पूरे देश में हर छोटी-बड़ी बेकरी में बन और बिक रहे हैं।

इसलिए आज ‘सेहतनामा’ में जानेंगे कि केक में कार्सिनोजेन्स का मिलना कितनी चिंता की बात है। साथ ही जानेंगे कि-

  • फूड कलर्स सेहत के लिए कितने खतरनाक हो सकते हैं?
  • खाने में कैसे पहचानेंगे फूड कलर्स?
  • इससे छोटे बच्चों को अधिक जोखिम क्यों होता है?

केक से पहले कॉटन कैंडी में मिला था कार्सिनोजेन

कर्नाटक सरकार ने कुछ महीने पहले ही आर्टिफिशियल कलर्स के इस्तेमाल को लेकर कड़ा रुख अपनाया था। फूड सेफ्टी कमिश्नर श्रीनिवास के. ने मार्च में गोभी मंचूरियन, कॉटन कैंडी, कबाब और पानीपुरी की चटनी में आर्टिफिशियल रंगों का इस्तेमाल बैन कर दिया था। उस दौरान भी फूड सेफ्टी डिपार्टमेंट को सैंपल टेस्टिंग में कार्सिनोजेन मिला था।

केक में मिला कार्सिनोजेन कितना खतरनाक हो सकता है

कार्सिनोजेन का सीधा सा मतलब है कि यह कैंसर का कारण बन सकता है। अगर केक में या किसी भी फूड आइटम में कार्सिनोजेन है और हम उसे खा रहे हैं तो यह कैंसर जैसी गंभीर बीमारी को ‘आ बैल मुझे मार’ कहने की तरह है।

एम्स, ऋषिकेष में कैंसर विभाग में डाइटीशियन रहीं डॉ. अनु अग्रवाल कहती हैं कि जिस तरह केक में कार्सिनोजेन मिला है, वैसे ही यह तंबाकू में होता है। इन दोनों के बीच फर्क ये है कि इनमें कार्सिनोजेन की मात्रा अलग-अलग होती है।

इसे ऐसे समझिए कि अगर तंबाकू के कारण 5 साल में कैंसर डेवलप हो रहा है तो ये केक भी फ्रीक्वेंट तरीके से खाने पर 10 साल में कैंसर डेवलप हो सकता है। हालांकि सभी केक में कार्सिनोजेन नहीं होता है। केक में यह खतरनाक तत्व आर्टिफिशियल कलर्स के कारण मिला है।

आर्टिफिशियल कलर के कारण होते कई जोखिम

अभी आर्टिफिशियल कलर्स कार्सिनोजेन की उपस्थिति के कारण चर्चा में हैं। जबकि फूड को अपीलिंग दिखाने के लिए आर्टिफिशियल फूड कलर का इस्तेमाल हर मामले में खतरनाक होता है। इसे फूड डाई भी कहते हैं।

इसके कारण गंभीर एलर्जी, अस्थमा और अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर जैसी स्थितियां बन रही हैं। आइए ग्राफिक में देखते हैं कि आर्टिफिशियल रंगों से सेहत को क्या नुकसान होते हैं।

खाने को अपीलिंग दिखाने के लिए सेहत से खिलवाड़

पहले इंसान अपने भोजन के लिए प्रकृति पर निर्भर थे। पूरे दिन मेहनत करके जंगल, खेत और शिकार से अपना भोजन जुटाते थे। उनकी सुबह से शाम तक सारी मेहनत सिर्फ खाने के लिए थी। फिर जैसे-जैसे समय बीता, इंसान की विलासिता की चाहत बढ़ी तो भोजन जीवन का एक हिस्सा भर रह गया।

लोग अपने भोजन के लिए बाजार पर निर्भर हो गए। इससे बिजनेसमैन को फूड इंडस्ट्री में आने का मौका मिला। उन्होंने खाने को जरूरत से ज्यादा चाहत, फैशन और स्टैंडर्ड में बदल दिया क्योंकि यह उनके लिए ऊर्जा के स्रोत से ज्यादा प्रोडक्ट है, जिसे ज्यादा-से-ज्यादा बेचकर पैसे कमाने हैं।

कमाई और फायदे के लिए उन्होंने तरह-तरह के फ्लेवर और आर्टिफिशियल रंगों का इस्तेमाल किया। यह सबकुछ खतरनाक केमिकल्स से बनता है। इसके कारण हमारे शरीर को गंभीर नुकसान हो रहे हैं।

आर्टिफिशियल कलर्स बच्चों को पहुंचा रहे गंभीर नुकसान

छोटे बच्चों को अस्थमा, कैंसर या किडनी डिजीज जैसी समस्याएं होती हैं तो लोग सवाल करते हैं कि बच्चे तो किसी नशे का सेवन नहीं करते हैं, फिर वे इन गंभीर बीमारियों का शिकार क्यों बन रहे हैं।

ऐसे सभी सवालों का जवाब ये है कि आम लोग इस बात से बेखबर हैं कि पैकेट में बंद अच्छे फ्लेवर वाले पाउडर्स और ड्रिंक्स पिलाने से बच्चों को कोई लाभ होने की बजाय नुकसान हो रहा है। लोग टीवी, अखबार में विज्ञापन देखकर, पड़ोसियों और रिश्तेदारों को देखकर अपने बच्चों के लिए भी पैकेज्ड फूड आइटम्स ला रहे हैं।

इन सबमें ढेर सारा आर्टिफिशियल फ्लेवर, आर्टिफिशियल कलर और आर्टिफिशियल शुगर मिला होता है।

डॉ. अनु अग्रवाल कहती हैं कि बच्चों की पसंद की ज्यादातर चीजें जैसे आइसक्रीम, कैंडी और केक आर्टिफिशियल कलर्स और फ्लेवर्स से बनी हैं। चूंकि छोटे बच्चों के इंटर्नल ऑर्गन्स बेहद नाजुक होते हैं, इसलिए ये खतरनाक केमिकल्स बच्चों के शरीर में जाकर अधिक जोखिम पैदा करते हैं।

छोटे बच्चों को प्यार-दुलार में भी न दें ये चीजें

डॉ. अनु अग्रवाल कहती हैं कि बच्चों के टेस्ट बड कैसे डेवलप होंगे, ये पूरी तरह से उनके अभिभावकों के हाथ में होता है। अगर बच्चों के टेस्ट बड शुरू से फल, सब्जियों, दालों और अनाज के लिए विकसित होंगे तो वे पैकेज्ड फूड्स की जिद नहीं करेंगे।

जब तक बच्चों के खाने की कमान पेरेंट्स के हाथ में है, उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि उनका खाना घर पर ही पकाया गया हो। अगर बच्चों को मीठे का स्वाद चाहिए तो कोशिश करें कि यह उन्हें किसी प्राकृतिक सोर्स से मिले। यह कोई फल या गन्ना हो सकता है।

इसका फायदा ये होगा कि जब बच्चे अपना भोजन चुनने के काबिल होंगे, तब तक उनके टेस्ट बड्स पेड़-पौधों से मिले भोजन के लिए विकसित हो चुके होंगे। उनका ध्यान पैकेज्ड फूड्स की तरफ कम जाएगा और इसका स्वाद भी उन्हें अच्छा नहीं लगेगा।

दूसरा बड़ा फायदा ये है कि बच्चों की शुरुआती नाजुक उम्र में वह किसी भी तरह के केमिकल से दूर रहेंगे। यह उनके स्वास्थ्य और भविष्य के लिए अच्छा है।

कैसे जानें कि खाने में आर्टिफिशियल रंग मिले हैं?

फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया की गाइडलाइंस के मुताबिक पैकेज्ड फूड्स के रैपर में आर्टिफिशियल कलर्स के इस्तेमाल की जानकारी देनी होती है। अगर इसमें फूड डाई का प्रयोग हुआ है तो रैपर पर ‘contains permitted synthetic food colours’ लिखना होता है। जब स्थानीय स्तर पर आर्टिफिशियल रंग इस्तेमाल होते हैं तो इनकी पैकिंग में इस तरह की गाइडलाइंस फॉलो नहीं की जाती हैं। इसलिए इसकी पहचान करना मुश्किल है। इसका बेहतर रास्ता यही है कि खाने की ज्यादातर चीजों के लिए प्राकृतिक स्रोतों पर ही निर्भर रहें।

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