मध्य प्रदेश उपचुनाव: बेलगाम हुई नेताओं की जुबान, जीत के आगे खत्म हुई भाषा की अहमियत
मध्य प्रदेश में हो रहे विधानसभा के उपचुनाव में चाहे जो जीते या हारे, मगर इस चुनाव ने आपसी सियासी सौहार्द को जरूर बिगाड़ने का काम किया है. राजनेताओं की भाषा निम्न स्तर पर पहुंच गई है और वे एक दूसरे के खिलाफ उस भाषा का उपयोग करने में लगे हैं, जो समाज में कम ही उपयोग की जाती है, बल्कि उसे गली-चौराहों की बोली के तौर पर जाना पहचाना जाता है.
राज्य में 28 विधानसभा क्षेत्रों में उप चुनाव हो रहे हैं और प्रचार अंतिम दौर में है. यहां तीन नवंबर को मतदान होने वाला है. सारे राजनेता अपने तरकश से एक-दूसरे पर हमलों के तीर छोड़े जा रहे हैं. इसी दौरान राजनेताओं के मुंह से निकली बोली के बाणों ने सियासी फिजा को ही दूषित करने का काम किया है.
पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पिछले दिनों डबरा की आमसभा में ‘आइटम’ शब्द का जिक्र किया, डबरा वह विधानसभा क्षेत्र है, जहां से बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर मंत्री इमरती देवी मैदान में हैं. कमल नाथ के इस बयान पर खूब हो हल्ला मचा और बाद में कमलनाथ को सफाई भी देनी पड़ी, मगर बीजेपी उन पर हमलावर हो गई. इमरती देवी ने तो कमलनाथ को गांव का लुच्चा लफंगा तक कह डाला.
‘बिकाऊ नहीं, टिकाऊ माल’
बात यहीं नहीं ठहरी, सागर के सुरखी विधानसभा क्षेत्र में प्रचार करने पहुंचे पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने तो अपनी ही पार्टी अर्थात कांग्रेस की उम्मीदवार पारुल साहू को ‘बिकाऊ नहीं, टिकाऊ माल’ तक बता डाला. इसके अलावा अनूपपुर से बीजेपी के उम्मीदवार और मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने तो कांग्रेस उम्मीदवार की पत्नी को ही रखैल कह दिया.
यह तो बड़े नेताओं के वे बयान हैं, जो चचार्ओं में है, इसके अलावा उम्मीदवारों और छुटभैया नेताओं ने तो कई स्थानों पर हद ही पार कर दी. चुनाव के दौरान निम्न स्तर की भाषा के प्रयोग पर चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों ही लगातार चिंता जता रहे हैं और एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, मगर कोई भी पार्टी बिगड़ैल बोल बोलने वाले नेताओं पर कार्रवाई करने को तैयार नहीं है.
जीत के आगे उनके लिए भाषा की कोई अहमियत नहीं
राजनीतिक विश्लेशक रविंद्र व्यास का कहना है कि इस बार के चुनाव में व्यक्तिगत हमले कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं, क्योंकि दोनों ही दलों के लिए एक-एक सीट महत्वपूर्ण है. दोनों दल हर हाल में जीत हासिल कर सत्ता पर कब्जा चाहते हैं. जीत के आगे उनके लिए भाषा की कोई अहमियत नहीं हैं. चुनाव में जीत चाहे जिसे मिल जाए, मगर राजनीतिक दलों के नेता भाषा के जरिए ऐसा बीज बो रहे हैं, जो वर्षों तक अपना दुष्प्रभाव दिखाएगी.