5 राज्यों में सोशल मीडिया बनाएगी सरकार? 40% युवा फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सऐप के जरिए लेते हैं वोटिंग का फैसला
अगर हम आपसे कहें कि चुनाव में अब वोट देने का फैसला आपका अपना नहीं है, तो क्या आप इस बात पर यकीन कर पाएंगे? सुनने में यह बात भले अटपटी लगती हो, लेकिन काफी हद तक सही है।
अमेरिका से लेकर भारत तक सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने लोगों के वोट देने के फैसले पर गहरा असर डाला है। डिजिटल मार्केटिंग कंपनी एडीजी ऑनलाइन की रिपोर्ट बताती है कि 2019 लोकसभा चुनाव में 50% फर्स्ट टाइम वोटर और 40% देश के युवा वोटरों ने सोशल मीडिया से प्रभावित होकर अपना वोट दिया था।
साफ है कि सोशल मीडिया नए जनरेशन के युवा वोटरों के फैसले को बदलने की क्षमता रखता है। ऐसे में जानिए कि फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सऐप कैसे आपके वोट देने के फैसले को बदल सकता है?
2016 अमेरिका चुनाव से समझें सोशल मीडिया का चुनावी खेल
साल 2016 में अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हो रहा था। मैदान में डोनाल्ड ट्रंप और हिलेरी क्लिंटन आमने सामने थे। इस चुनाव में ट्रंप की जीत हुई थी। इसके बाद न्यूयॉर्क टाइम्स ने दावा किया था कि अमेरिका चुनाव को सोशल मीडिया के जरिए रूसी एजेंसी ने प्रभावित किया था।
इसके अलावा, कैंब्रिज एनालिटिका नाम की कंपनी ने फेसबुक से डेटा चुराकर ट्रंप को जीताने के लिए करोड़ों लोगों को प्रोपेगेंडा के जाल में फंसाया था। बोट्स अकाउंट्स के जरिए हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ फेक वीडियो और न्यूज सर्कुलेट हो रहे थे। लोग इसे सही मानकर धड़ल्ले से शेयर कर रहे थे। इस घटना से दुनिया ने इस बात को समझा कि कैसे और कितना सोशल मीडिया किसी लोकतंत्र के लिए खतरनाक हो सकता है।
सोशल मीडिया कैसे लोगों के वोट देने के फैसले को प्रभावित करता है?
ICEA की रिपोर्ट मुताबिक, भारत में इस साल के अंत तक स्मार्ट फोन यूजर्स बढ़कर 82 करोड़ हो जाएंगे। इनमें से ज्यादातर लोगों को इंटरनेट की मायावी दुनिया की समझ कम है या नहीं है। ऐसे में उनके सामने इंटरनेट या सोशल मीडिया के जरिए जानकारियों की बाढ़ आ जाए तो क्या वो सही और गलत की पहचान कर पाएंगे? इसका जवाब नहीं है।
अल जजीरा रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि वोटर के दिमाग पर कब्जा करने के लिए बड़े स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की आईटी सेल काम कर रही हैं। लोगों के ब्राउजिंग हिस्ट्री का इस्तेमाल कर उनके सोशल मीडिया वॉल पर पसंद के हिसाब से पॉलिटिकल वीडियो सजेस्ट किए जाते हैं। बार-बार सजेशन को देख लोगों के अंदर इंटरेस्ट पैदा हो जाता है। यूजर्स के डेटा एनालिसिस के लिए कंपनियां साइकोलॉजिस्ट हायर करती हैं। फेसबुक और गुगल जैसी कंपनियों के पूर्व कर्मचारियों ने इसका खुलासा किया है।
ये 5 वजहें लोकतंत्र की मूल भावना को आहत करती हैं…
- सोशल मीडिया के जरिए जनता के मुद्दे को गौण कर गैरजरूरी बातों को चुनावी एजेंडे में शामिल कर दिया जाता है।
- जाति और धर्म के आधार पर चुनाव से पहले वोटर को आसानी से बांट दिया जाता है।
- बोट्स अकाउंट्स के जरिए पॉलिटिकल ओपिनियन को बदलने के लिए काम होता है।
- चुनाव में पैसे के बल पर अमीर कैंडिडेट सोशल मीडिया के जरिए मजबूत दावेदारी पेश करते हैं।
- लोगों को सही सूचना मिलने के अधिकार से वंचित रखा जाता है। इससे लोग सही फैसला नहीं ले पाते हैं।
इन्हीं बातों को देखते हुए 9 जुलाई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि सोशल मीडिया लोगों के ओपिनियन को प्रभावित कर रहा है। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, ‘चुनावी प्रक्रिया किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की नींव होती है। यह नींव सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही गलत जानकारियों से खतरे में हैं। लोगों को सही जानकारी नहीं मिल रही होगी तो वो ठीक से अपने फैसले नहीं ले पाएंगे।’
पार्टियों के समर्थन और विरोध के लिए विदेश में बना डिजिटल वॉर रूम
2022 विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए सोशल मीडिया ही सबसे मजबूत माध्यम है। ऐसे में कई सोशल मीडिया पेज प्रोपेगेंडा के तहत जमकर फेक न्यूज फैला रहे हैं। ट्रिब्यून में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, ‘आप का बाप’, ‘बेकाली दल’, ‘गप्पतान प्रो’, ‘बोलदा पंजाब’, ‘ढोंगी आप’, ‘खाकी निकर वाले’ जैसे दर्जनों सोशल मीडिया पेज इसके उदाहरण हैं। किसी राजनीतिक पार्टी की छवि को खराब करने के लिए इन पेज से गलत दावे के साथ पोस्ट किया जाता है।
हैरानी की बात तो यह है कि इनमें से कई सोशल मीडिया पेज विदेश से ऑपरेट किए जा रहे हैं। ‘ढोंगी आप’ पेज को चलाने वाले 12 लोग भारत में रहते हैं जबकि कनाडा से 4 लोग इस पेज को ऑपरेट कर रहे हैं। इसी तरह गप्पतान प्रो, बोलदा पंजाब समेत कई अन्य पेज ऑपरेट हो रहे हैं।
यह पहली बार नहीं है जब भारत में हो रहे चुनाव के लिए विदेश में डिजिटल वॉर रूम बना हो। इससे पहले 2019 लोकसभा चुनाव में भी इस बात का खुलासा हुआ था कि पाकिस्तान में बने 103 अकाउंट से पीएम नरेंद्र मोदी समेत कई नेताओं को लेकर भारत में अफवाह फैलाई जा रही थी।
सोशल मीडिया पर मॉनिटरिंग और कानून पर एक्सपर्ट की राय
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता ने डिजिटल युग में कराए जा रहे 5 राज्यों के चुनाव को लेकर इलेक्शन कमीशन की लाचारी पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने कहा कि चुनाव के दौरान सोशल मीडिया पर हो रहे बेहिसाब खर्च और फैलाए जा रहे प्रोपेगेंडा को रोकने के लिए भारत में मजबूत कानून नहीं है। चुनाव आयोग ने सोशल मीडिया पर खरबों रुपए के हो रहे कालेधन के खर्च की मॉनिटरिंग के लिए भी कोई सिस्टम नहीं बनाया है।
चुनाव के समय सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे प्रोपेगेंडा और फेक न्यूज को रोकने के लिए एन गोविंदाचार्य के प्रतिवेदन पर 2013 में जो नियम बने थे, उन्हें विदेशी सोशल मीडिया कंपनियों के दबाव में दो साल पहले वापस ले लिया गया। इन समस्याओं से निपटने के लिए फेसबुक, ट्विटर, गूगल जैसी प्राइवेट कंपनियों ने अपने हिसाब से नियम बनाए हैं, लेकिन इन नियमों की कोई कानूनी वैधता नहीं है।
दुनिया के 70 देशों में ऑर्गेनाइज्ड तरीके से चल रहा प्रोपेगेंडा फैलाने का काम
ऑक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट ने अपने रिसर्च में पाया कि राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया, बिग डेटा और ऑटोमेशन के जरिए लोगों के ओपिनियन को बदलने के लिए करोड़ों खर्च कर रही है। भारत, अमेरिका, ब्रिटेन समेत दुनिया के 70 देशों में ऑर्गेनाइज्ड तरीके से यह सबकुछ हो रहा है।
यही नहीं बोट्स अकाउंट्स के जरिए हेट स्पीच, भड़काऊ वीडियो आदि को पॉलिटिकल माइलेज के लिए वायरल कराया जा रहा है। सोशल मीडिया पर ग्रुप बनाकर या ऐप के जरिए ट्रोलर्स की आर्मी खड़ी की जा रही है। ये एक इशारे में कभी भी किसी पत्रकार या आमलोगों को ट्रोल करने लगते हैं।
5 राज्यों में सभी दलों की सोशल मीडिया के जरिए प्रचार की तैयारी
पांचों राज्यों की सभी राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया के जरिए कैंपेन को आगे बढ़ा रही हैं। जानते हैं कि सोशल मीडिया चुनाव लड़ने की तैयारी में कौन सी पार्टी कितनी आगे है?