भारत को दलबदल कानून से आगे सोचने की जरूरत

सामयिक: ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह कि सरकारों की स्थिरता बनी रहे…

भारत में दलबदल कानून के बावजूद दलीय निष्ठा और नैतिकता का परित्याग कर सत्ता हासिल करने के प्रकरणों को देखते हुए वर्ष 1985 में लागू हुए दलबदल कानून की प्रासंगिकता पर फिर चर्चा शुरू हो गई है। यह चर्चा महाराष्ट्र के ताजा सियासी घटनाक्रम को लेकर हुई है जहां सत्ता पार्टी ही दो फाड़ हो गई। यहां समझने योग्य फर्क यह है कि जहां भारत में मजबूत दलबदल कानून के बावजूद सरकारों की अस्थिरता का दौर सामने आता है वहीं अमरीका और ब्रिटेन जैसे देशों में ऐसी घटनाएं होती भी हैं तो सरकारों की स्थिरता को खतरा नहीं होता। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री बदलने के घटनाक्रम में एक ही पार्टी के विधायकों को दो-दो व्हिप जारी किए गए। ऐसे में अब कहीं इस कानून को और मजबूती देने और कहीं इस आधे-अधूरे कानून को ही वापस लेने की बात उठने लगी है। एक तथ्य यह भी है कि दुनिया के कई विकसित व परिपक्व लोकतंत्रों में दलबदल कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं पर इसका असर सरकार की स्थिरता पर नहीं पड़ता।

हमारे यहां दलबदल कानून की जरूरत सबसे पहले उस वक्त महसूस हुई जब 1967 में अलग-अलग राज्यों में कई विधायकों ने अपनी पार्टी छोड़ दूसरी पार्टी का दामन थाम लिया और सरकारों को अस्थिरता का सामना करना पड़ा। देखा जाए तो भारत उन देशों में से एक है जिसने दलबदल कानून को अपेक्षाकृत मजबूती से लागू किया है। अमरीका और ब्रिटेन दोनों ही देशों की संसदीय प्रणाली का भारत पर बड़ा असर है। वह इसलिए भी कि यहां इन विधायिका के सदस्यों को सदन में विचार प्रकट करने व वोट करने के अधिकारों की आजादी है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 में सदन में सभी सदस्यों को खुलकर विचार प्रकट करने का अधिकार है, उसी तरह ब्रिटेन के 1869 के विधेयक में अनुच्छेद 9 व अमरीका के संविधान के पहले संशोधन में भी सदन के सदस्यों को यह अधिकार प्राप्त है। इस संवैधानिक अधिकार के कारण दोनों ही देशों में पार्टी के खिलाफ जाने को लेकर कोई कठोर कानूनी प्रावधान नहीं है। ऐसे मसलों को अमूमन पार्टी के आंतरिक मामलों की तरह ही सुलझाया जाता है।

ब्रिटेन व ऑस्ट्रेलिया में व्हिप के उल्लंघन पर सदस्यों को सदन की सदस्यता खोने का डर नहीं है। यूरोपीय यूनियन से बाहर आने को लेकर प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की कंजरवेटिव पार्टी के अनेक सदस्यों द्वारा ब्रिटेन की संसद में पार्टी लाइन के बाहर जाकर मतदान किया गया था। बात अमरीका की करें तो 6 जनवरी 2021 को अमरीकी संसद पर हुए हमले के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के खिलाफ लाए गए महाभियोग में ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के कई सांसदों ने महाभियोग का समर्थन किया था।

अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में अपनी निष्ठा के विरुद्ध वोट करने वाले इलेक्टोरल कॉलेज के सदस्यों को ‘फेथलेस वोटर’ की संज्ञा दी जाती है। विशेष बात यह है कि ऐसा करने वालों को न तो किसी कठोर कार्रवाई का सामना करना पड़ा और न ही ऐसी घटनाओं से सरकार के अस्थिर होने या अंतिम परिणामों पर कोई असर पड़ने की बात सामने आई है। अमरीका के 244 साल के स्वतंत्रता व 233 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा करीब 157 बार हो चुका है। वॉशिंगटन डीसी के इलेक्टर्ज वोट निर्धारित प्रत्याशी को नहीं डालते हैं तो उन्हें 1000 डॉलर का जुर्माना भरना पड़ सकता है जबकि यह स्थिति जॉर्जिया या टेक्सास में बनती है तो वहां वोटिंग को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून नहीं है।

प्रजातांत्रिक व्यवस्था में संवाद जरूरी है। लेकिन यह भी सामने आता है कि दलबदल कानून के प्रावधानों और पार्टी अनुशासन का डंडा, पार्टी से अलग मगर अहम विचारों की अनसुनी का सबब बनता है। ऐसे में असहमति की आवाज दब जाती है और पार्टी में एकाधिकार जैसी स्थिति बन जाती है। ऐसे में ज्यादा जरूरी यह है कि दलबदल कानून चाहे कैसा भी हो, लेकिन जनता की भलाई के लिए ऐसी व्यवस्था जरूरी है जिसमें सरकारों की स्थिरता बरकरार रहे। इसके लिए प्रभावी तंत्र विकसित करने की जरूरत है जिससे विधायक व सांसद के दल बदलने का असर सरकारों की स्थिरता पर न पड़े।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *