हाईकोर्ट के जल्दबाजी में दिए आदेश की वजह से बेगुनाह लोगों पर संकट आया है

हाईकोर्ट के जल्दबाजी में दिए आदेश की वजह से बेगुनाह लोगों पर संकट आया है

‘मेरा राज्य जल रहा है!’ बॉक्सर मैरी कॉम की इस पोस्ट के बाद देश का ध्यान मणिपुर की हिंसा की तरफ गया। मणिपुर के अलावा कर्नाटक और बिहार की हालिया घटनाओं से साफ है कि आरक्षण की सियासत से सभी दलों के नेता बांटो और राज करो मंत्र का सफल इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन आरक्षण के सियासी दंगल में अदालती फैसलों से उलझनों का बढ़ना कानून के शासन के लिहाज से खतरनाक है।

कर्नाटक में मुस्लिम आरक्षण और मणिपुर में जनजातीय आरक्षण की गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। जबकि बिहार में जातिगत जनगणना का मुद्दा अभी हाईकोर्ट में अटका है। मणिपुर हाईकोर्ट के आदेश की पड़ताल करने पर अदालत के साथ सरकार की विफल तस्वीर उभरकर सामने आ रही है :

1. संविधान पीठ के फैसले की अनदेखी : हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले 8 पिटीशनर एक ही संस्था मैतेई ट्रेड यूनियन से जुड़े हैं। इसका रजिस्ट्रेशन पिछले साल नई सरकार के गठन के साथ हुआ था। सरकारों के जवाब के बगैर राज्य और केंद्र सरकार के वकीलों की सहमति के बाद सिंगल जज बेंच ने मामले के दायर होने के 15 दिन के भीतर ही यह फैसला दे दिया। मणिपुर हाईकोर्ट ने गुवाहाटी हाईकोर्ट के 26 मई 2003 के फैसले को आधार बनाया है, जिसमें 8 जनजातियों को आरक्षण देने के निर्देश दिए गए थे। लेकिन उनमें मैतेई समुदाय शामिल नहीं था।

मणिपुर मामले पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा कि एसटी आरक्षण को नोटिफाई करने का अधिकार राष्ट्रपति को है। महाराष्ट्र मामले में पांच जजों की संविधान पीठ के 2000 के जिस पुराने फैसले की बात हो रही है, उसका पालन मणिपुर और गुवाहाटी दोनों फैसलों में नहीं किया गया। मणिपुर हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस ने गलती को स्वीकार करने के बजाय आलोचना करने वालों के खिलाफ ही कंटेम्प्ट नोटिस जारी करके अभेद्य न्यायिक सुरक्षा कवच धारण कर लिया है।

2. राज्यों और केंद्र में लालफीताशाही से अटके फैसले : हाईकोर्ट के फैसले में 29 मई 2013 के पत्र का विशेष उल्लेख है। उसमे केंद्रीय जनजातीय मंत्रालय ने मैतेई समुदाय को आरक्षण देने के लिए राज्य सरकार से 2 महीने में रिपोर्ट मांगी थी। फैसले के अनुसार पिछले 10 सालों से उस पत्र पर राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की।

याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट में पिटीशन फाइल करने से पहले अप्रैल 2022 में केंद्र और राज्य सरकार के 12 अधिकारियों को प्रतिवेदन दिया था। एक महीने के भीतर नौकरशाही ने उस पत्र को फॉरवर्ड करते हुए 2019 और 2021 के पुराने प्रतिवेदनों पर भी राज्य सरकार की सिफारिश मांगी थी।

संविधान के अनुच्छेद 342 और 366 के साथ सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले से साफ है कि जनजातीय आरक्षण से जुड़े मामलों पर राष्ट्रपति को पूर्ण अधिकार हासिल है। इसलिए उन मामलों में राज्यों के साथ हाईकोर्ट को बेवजह की दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए।

इसके बावजूद डबल इंजिन वाली केंद्र सरकार ने इस मामले पर ठोस फैसला लेने के बजाय राज्य सरकार के पाले में गेंद ठेल दी। नेताओं ने मामले को हाईकोर्ट के सामने धकेल दिया। हाईकोर्ट के जल्दबाजी के इस आदेश की वजह से बेगुनाह लोगों की मौत के साथ, हजारों लोगों को राहत शिविरों में पनाह लेना पड़ा है।

3. सुप्रीम कोर्ट में जवाबदेही तय हो : हाईकोर्ट के फैसले के बाद हिल काउंसिल ने प्रस्ताव पारित किया है। उसके अनुसार मैतेई समुदाय को ओबीसी और एससी का दर्जा मिलने की वजह से आरक्षण के सारे लाभ हैं। लेकिन हकीकत में पहाड़ी इलाकों में मैतेई लोगों को जमीन नहीं खरीदने की अनुमति मिलना विवाद का बड़ा पहलू है। सरकारी जमीन पर अफीम की गैरकानूनी खेती और विदेशी घुसपैठ भी समस्या को विकराल बना रहे हैं।

सत्तारूढ़ दल के एमएलए और उसके बाद पुलिस के मुखिया ने राज्य में अनुच्छेद 355 के इस्तेमाल की बात कही, जिसकी आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई। लेकिन इस हिंसा से साफ है कि मणिपुर सहित पूर्वोत्तर राज्यों में अफप्सा कानून को हटाने की चरणबद्ध मुहिम को झटका लग सकता है। सरकारी लालफीताशाही और जजों के गलत आदेश की वजह से बेगुनाह नागरिकों को हिंसा और पलायन की यंत्रणा से गुजरना पड़ रहा है। कर्नाटक में सोनिया गांधी के भाषण के बाद सार्वभौमिकता पर बड़ी बहस हो रही है।

सरकारी विफलता और हाईकोर्ट के जल्दबाजी में पारित आदेश से सीमावर्ती राज्य में अशांति से देश की सार्वभौमिकता पर जो आंच आई है, उस पर भी सुप्रीम कोर्ट में अब सार्थक बहस होनी चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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