मुस्लिम आरक्षण हटाने की कहानी !
आखिर संविधान में क्यों नहीं मिला मुस्लिमों को आरक्षण?
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था. इस संविधान में तब अल्पसंख्यकों को हर तरह के आरक्षण से बाहर रखा गया था.
इतिहास गवाह है कि पुरानी गलतियों से सबक न सीखने वाला अपना वर्तमान और भविष्य दोनों ही दांव पर लगा देता है. भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान बहुतेरी ऐसी गलतियां हुईं थीं जिन्हें नजरंदाज करना बहुत भारी पड़ा था और उसका नतीजा भारत का विभाजन था. लेकिन आजाद भारत में उन गलतियों से सबक सीखा गया और संविधान सभा के जरिए ऐसे देश की नींव रखी गई जिसने तय किया कि धर्म राजनीति के आड़े नहीं आएगा.
इसी का नतीजा था कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं रखा गया. इस स्पेशल स्टोरी में हम बात संविधान सभा में हुई उस बहस की करेंगे जिसने तय किया था कि भारत में धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता है.
तारीख थी 27 अगस्त 1947. भारत आजाद हो चुका था और संविधान सभा की बैठक चल रही थी. उस दिन सरदार पटेल ने संविधान सभा में एक प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव में था-
‘केंद्रीय और प्रांतीय धारा सभाओं के सभी चुनाव संयुक्त विधि से होंगे.’
सरदार पटेल के इसी प्रस्ताव ने तय किया कि भारत में चुनाव के लिए कोई पृथक निर्वाचन प्रणाली नहीं होगी. यानी कि भारत में मुस्लिमों के लिए कोई अलग निर्वाचन क्षेत्र नहीं होगा, जिसका प्रावधान अंग्रेज करके गए थे. इसी दिन संविधान सभा में एक और प्रस्ताव पास हुआ. उस प्रस्ताव में था-
‘अनुसूचित जातियों के अलावा अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की पद्धति को खत्म कर दिया जाए.’
27 अगस्त 1947 को पास हुए इसी प्रस्ताव ने तय किया था कि भारत में धर्म के आधार पर आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होगी. लेकिन इस प्रस्ताव तक पहुंचना और फिर उसे पास करवाना इतना भी आसान नहीं था. क्योंकि जब भारत में अंग्रेजों का शासन था तो पहले साल 1909 में इंडियन काउंसिल एक्ट के जरिए अंग्रेजों ने मुस्लिमों के लिए अलग चुनाव क्षेत्र की व्यवस्था कर दी थी. फिर 1916 में लखनऊ समझौते के तहत कांग्रेस भी राजी हो गई थी कि चुनाव में मुस्लिमों के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित रहेंगी. फिर 1935 में चार्टर एक्ट के तहत भी चुनाव में मुस्लिम आरक्षण को बरकरार रखा गया था.
लेकिन आजादी के बाद कांग्रेस के नेताओं को ये समझ में आ गया कि धर्म के आधार पर आरक्षण कितना घातक हो सकता है. आखिर भारत का विभाजन भी तो धर्म के ही आधार पर हुआ था. तो तब के कांग्रेस नेताओं ने इतिहास से सबक सीखा. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय अपनी किताब भारतीय संविधान अनकही कहानी में लिखते हैं-
“संविधान सभा ने अल्पसंख्यकों और मूल अधिकारों के लिए एक सलाहकार समिति बनाई. सरदार पटेल को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया. भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद इस सलाहकार समिति में दो नए मुस्लिम प्रतिनिधियों की नियुक्ति हुई. तजम्मुल हुसैन और बेगम एजाज रसूल. यूं तो तजम्मुल हुसैन मुस्लिम लीग के नेता रह चुके थे. लेकिन बंटवारे के बाद उन्होंने पाकिस्तान न जाकर भारत में ही रहना पसंद किया.”
ऐसे में जब सलाहकार समिति की पहली बैठक हुई तो उसमें तजम्मुल हुसैन समेत कई दूसरे सदस्यों ने नोटिस दिया कि अल्पसंख्यकों के आरक्षण को खत्म कर दिया जाए. हालांकि तब तक प्रारूप समिति की बैठक हो चुकी थी और उसमें अल्पसंख्यकों के आरक्षण को खत्म करने की कोई बात नहीं हुई थी. तो प्रारूप समिति के अध्यक्ष रहे बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने मुस्लिम आरक्षण को खत्म करने की बात से इनकार कर दिया. ऐसे में सरदार पटेल ने दखल दिया. बोले-
हालांकि तब पाकिस्तान का प्रस्ताव ठुकरा कर भारत में रहने वाले तमाम बड़े-बड़े मुस्लिम नेताओं ने भी मुस्लिम आरक्षण की वकालत की. इनमें मौलाना आजाद और मौलाना हफीजुर रहमान बड़े नाम थे. लेकिन तब तजम्मुल हुसैन ने मौलाना अबुल कलाम आजाद को निशाने पर लेते हुए कहा-
‘अतीत को भूल जाएं और सेक्युलर राज्य बनाने में मदद करें.’
जब तजम्मुल हुसैन ने मुस्लिम आरक्षण को सिरे से खारिज कर दिया तो बेगम एजाज रसूल को भी मौका मिला. उन्होंने कहा-
“पाकिस्तान बन गया है. भारत में जो मुसलमान हैं, उनके हितों का तकाजा है कि वे अलग-थलग न रहें बल्कि भारत की मुख्यधारा में रहने का विचार बनाएं. इसलिए आरक्षण की मांग को छोड़ देना बेहतर है.”
वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय भारतीय संविधान अनकही कहानी किताब में लिखते हैं कि इस बहस में अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधि ही दो हिस्सों में बंट गए. दो बड़े नेता चाहते थे कि मुस्लिम आरक्षण बना रहे तो दो मुस्लिम नेता चाहते थे कि मुस्लिम आरक्षण खत्म हो जाए. ऐसे में सरदार पटेल ने कहा-
“मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि अब भी दो मत में हैं. इसलिए आम सहमति के लिए हमें थोड़ा समय देना चाहिए. उसका इंतजार करना चाहिए.”
इस बीच सलाहकार समिति ने 24 फरवरी 1948 को एक उप समिति बनाई, जिसका काम पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल की अल्पसंख्यक समस्याओं पर रिपोर्ट देना था. इस उपसमिति में सरदार पटेल के अलावा पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, केएम मुंशी और बीआर अंबेडकर भी शामिल थे. इस समिति ने निर्णय किया कि अनुसूचित जातियों के अलावा अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण के प्रावधान को खत्म कर दिया जाए. इस प्रस्ताव के समर्थन में पंडित नेहरू ने कहा-
लेकिन ये विचार सलाहकार समिति की उपसमिति का था. अंतिम फैसला तो सलाहकार समिति को ही करना था. तो 11 मई 1949 को सलाहकार समिति के सामने फिर से मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा उठ गया. लेकिन उस दिन तजम्मुल हुसैन मौजूद नहीं थे. वो विदेश गए थे. तो बेगम एजाज रसूल को ही बात रखनी थी. लेकिन वो इस बात से डर रही थीं कि कहीं दूसरा तबका उनके खिलाफ हावी न हो जाए. वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय अपनी किताब भारतीय संविधान अनकही कहानी में इस घटना का विस्तार से जिक्र करते हुए लिखते हैं कि सरदार पटेल ने एजाज रसूल के बगल में बैठे कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी की ओर देखा. दोनों की नज़र मिली तो केएम मुंशी ने बेगम रसूल से कहा कि सरदार चाहते हैं कि आप बोलें. केएम मुंशी की बात से बेगम रसूल को हिम्मत मिली. वो उठीं और बोलीं-
‘आरक्षण को खत्म किया जाना चाहिए.’
इतना सुनते ही सरदार पटेल अपनी कुर्सी से उठे और कहा-
‘मुझे खुशी है कि मुस्लिम समुदाय ने संयुक्त चुनाव क्षेत्र के लिए आम सहमति प्रकट की है.’
जब बातें खत्म हो गईं तो उसी दिन यानी कि 11 मई 1949 को ही एचसी मुखर्जी ने प्रस्ताव रखा कि अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है. इसपर वोटिंग भी हुई और तीन के मुकाबले 58 मतों से ये प्रस्ताव पारित हो गया कि भारत के संविधान में मुस्लिम आरक्षण का प्रावधान नहीं होगा. 26 मई 1949 को इस प्रस्ताव को भारत की संविधान सभा ने भी स्वीकार कर लिया. फिर 26 जनवरी 1950 को देश का जो संविधान लागू हुआ उसमें अल्पसंख्यकों को हर तरह के आरक्षण से बाहर रखा गया था.
ये थी पूरी कहानी भारतीय संविधान से मुस्लिम आरक्षण को हटाने की, जिसके लिए कई अन्य स्रोतों के अलावा वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय की किताब भारतीय संविधान अनकही कहानी से भी बड़ा हिस्सा लिया गया है.