बदल रही राजनीति ?

 बदल रही राजनीति, कभी समावेशी हुआ करते थे सरकार-प्रतिपक्ष, अब बढ़ रहे संघर्ष की ओर

मुल्क की राजनीति बदल रही है. पहले यह समावेशी हुआ करता था. अब सरकार संघर्ष को दावत दे रही है. चुनाव के बाद दशकों से परमपरा  रही है कि सरकार और प्रतिपक्ष साथ बैठते रहे और प्रतिपक्ष से साथ  बात कर स्पीकर यानि लोकसभा अध्यक्ष का नाम सर्वसम्मति से तय किया जाता था. प्रोटेम स्पीकर को लेकर भी परंपरा है कि सबसे वरिस्ठ सदस्य को बनाया जाता है. इसे भी नहीं माना गया. सामान्यतः स्पीकर का पद सत्तारूढ़ दल को मिलता था और उप-सभापति का पद प्रतिपक्ष को दिया जाता था. वजह थी कि प्रतिपक्ष भी सरकार का ही हिस्सा होता हैं और मिलजुल कर दोनों देश की व्यवस्था को चलाते रहे हैं. एनडीए प्रथम में तों प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके सहयोगिओं ने तेलुगु देसम पार्टी के जीएमसी बालयोगी को यह पद देना स्वीकार कर लिया था. उन्होंने लोक सभा को बहुत अच्छे ढंग से चलाया.

लोकसभा अध्यक्ष राजनीति से ऊपर

यह पद राजनीति से ऊपर होता है. कई एक सभापतिओं ने उनकी पार्टी के सहमति से कार्यकाल के दौरान पार्टी से इस्तीफा भी दिया. जिससे कि सभापति की निष्पक्षता पर विश्वास रहे. यह पञ्च की कुर्सी है और सभी सदस्यों से बिना भेदभाव के व्यव्हार किया जाता है. पहली बार देश इन मान्यताओं से हट रहा है. पक्ष और प्रतिपक्ष दुश्मन के तरह लग रहें है. क्या दोष प्रतिपक्ष का है? शायद नहीं. प्रतिपक्ष इंडिया गठबंधन का तो एक ही सुझाव था. उप सभापति का पद उन्हें मिले. तेलेगु देशम पार्टी के प्रमुख चन्द्र बाबु नायडू चाहते थी कि पहले की तरह उन्हें स्पीकर का पद मिले. न तो बातचीत में प्रतिपक्ष की बात मानी गई न ही नायडू की. आज प्रतिपक्ष ने कांग्रेस के के सुरेश का नामांकन स्पीकर पद के लिए कर दिया यह जानते हुए भी कि शायद संख्या उनके पास न हो. पर चुनाव में नायडू क्या करेंगे यह महत्वपूर्ण होगा. क्या अन्य कोई दल भी प्रतिपक्ष का साथ देगा. अभी मालूम नहीं पर प्रतिपक्ष भी विभिन्न दलों से बात कर रहा है.

एनडीए का अड़ना गैरवाजिब

आखिर एनडीए को इस बात पर अड़ना नहीं चाहिए था. इंडिया गठबंधन को याद है कि कैसे पिछले १७वीं सदन में प्रतिपक्ष के एक ही दिन में १४७ सदस्यों का निष्काशन कर दिया. आये दिन सदस्यों का निलंबन या निष्काशन होता रहा. कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी के खिलाफ मानहानिं के मुक़दमे में उनका निष्काशन ही नहीं किया गया उनको उनके आवास से रातोंरात निकाला गया. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही वे सदन में वापस आये. तृणमूल कांग्रेस के महूआ मोइत्रा के साथ भी इसी प्रकार से पेश आया गया. इन वजहों से प्रतिपक्ष या नायडू को लगता है कि सभापति का पद उनके पास होना चाहिए. यह विश्वास का विषय है. एनडीए के सहयोगी बीजू जनता दल के अध्यक्ष नवीन पटनायक का भी विश्वास एनडीए से हट गया. इसीलिए उन्होंने राज्यसभा में अपने सदस्यों को प्रतिपक्ष की तरह पेश आने को कह दिया. एक सरकार को सहयोगी विपक्ष की जरूरत होती है. सदन में तमाम काम बिना सहयोग के नहीं होता है. २०१३ के दिसंबर के आखरी दिन में भारतीय जनता पार्टी ने जीएसटी बिल राज्य सभा में पास करने से मना कर दिया था. यूपीए सरकार इसे पास नहीं करा सकी थी.

चुनाव अलग, सरकार चलाना अलग

चुनाव में निर्णय क्या होता है महत्वपूर्ण नहीं है. पर इस चुनाव से राजनीतिक कदम जो उठाये गए, वह इस सदन के भविष्य के कार्यशैली को निश्चित कर रहा है. सरकार के ओम बिरला को  फिर से सभापति पद के लिए मनोनीत करने से यह स्पष्ट हो गया कि सरकार बेहद सख्त रूख अपनाएगीऔर इंडिया गठबंधन जिस तरह से रोज संविधान के प्रति लेकर संसद भवन में प्रदर्शन कर रहा है दिखाता है कि विपक्ष भी हर जवाब देने को तैयार है. लोकतंत्र में अहम् की राजनीति से लाभ नहीं होता है. पर इस वक़्त अहम् हावी है. एक हंगामेदार शुरुआत हो रही है. नीट घोटाला का उल्लेख सदन में होगा. अगले कुछ समय तक और खास कर जुलाई के मानसून सेशन में विरोध प्रखर हो सकता है. जो भी हो, देश को एक संघर्षशील राजनीति के लिए तैयार रहना है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि  …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.] 

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