उत्तर प्रदेश ने नहीं दिया दलबदलुओं का साथ !

उत्तर प्रदेश ने नहीं दिया दलबदलुओं का साथ, पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं के हाथ लगी जीत

लोकसभा चुनाव खत्म हुए, नयी सरकार भी गठित हो गयी, फिर भी चुनाव के नतीजों पर बहस जारी है. जनता ने इतना मजेदार फैसला ही दिया है. जीतनेवाले खुलकर खुशी नहीं मना पा रहे, हारनेवाले खुद को हारा हुआ महसूस ही नहीं कर रहे हैं. विशुद्ध तौर पर गठबंधन की बनी सरकार बस एक दशक में ही लोगों की सामूहिक स्मृति से गायब हो गयी. अभी 2004 से 2014 तक तो सरदार मनमोहन सिंह ने पूरी गठबंधन की ही सरकार चलायी थी. बहरहाल, क्षणजीवी इतिहास-बोध के शायद यही साइड इफेक्ट्स हैं. लोकसभा में भी खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजों को सुलझाने की कोशिश कई विश्लेषकों ने की, लेकिन बात अभी भी पूरी नहीं हो पा रही है. 

सपा ने किया काडर पर भरोसा

उत्तर प्रदेश के नतीजों की अगर समाजवादी पार्टी के रेफरेंस में  बात करें तो एक बात तो यह कहनी होगी कि सपा ने दूसरे दलों से आए प्रत्याशियों को टिकट नहीं दिया, अपने काडर पर ही भरोसा किया. दूसरा, उनके साथ जो दल पहले थे और पल्ला झाड़ चुके थे, उनके साथ क्या हुआ, यह देखने लायक बात होगी. ओमप्रकाश राजभर का तो अच्छा खासा नुकसान हो गया. संजय निषाद का बेटा भी 2018 में सपा से लड़ा था, लेकिन अब वो अलग हो गए, तीसरी पल्लवी पटेल थीं, जिन्होंने इधर-उधर की थी, तो अब वो परिदृश्य से ही गायब हो गयीं. पुराने लोगों को ही चुनाव में लड़वाया. हां, यह भी ठीक बात है कि बहुतेरे लोग इधर यानी सपा की ओर आए भी नहीं. अंतिम वक्त पर टूटने वाले तो भाजपा की तरफ ही खिसके थे. बसपा से जिनको आना था, वो दो-ढाई साल पहले ही आ गए. इस बार, जातियों का बांट-बखरा ठीक रखने के साथ ही अखिलेश ने बडा़ काम यह किया कि दलबदलुओं पर भरोसा नहीं किया. टिकट भी नहीं दिया, बड़ी जिम्मेदारी भी नहीं दी. गाढ़े वक्त में जो साथ थे, उनको ही सपा ने पुरस्कृत किया. 

ऐसे ही मौकों पर यह भी याद रखना चाहिए कि सपा ने अपने पुराने और वफादार कार्यकर्ताओं को ही तरजीह दी. जैसे, अनुराग भदौरिया को ही देखिए. जहां तक उनकी बात है, तो वो अड़े रहे. यही उनकी सफलता है. वह टीवी पर समाजवादी पार्टी का बड़ा चेहरा थे. राहुल गांधी के खटाखट को उन्होंने भी खूब स्वर दिया. हार और जीत किसी भी मायने में वह सपा का पक्ष खूब मजबूती से रखते हैं, यह काबिल-ए-गौर है. उन पर पार्टी ने भरोसा भी जताया, विधानसभा चुनाव का टिकट भी दिया, भले ही वह जीत नहीं पाए पर अखिलेश के विश्वासपात्र जरूर रहे. जैसे, एक बार उन्होंने वीडियो के माध्यम से बताया था कि सपा कि झंडा दिखाते ही उनको लिफ्ट मिल गयी. अनुराग का पूरा करियर सपा के साथ जुड़ा है. अखिलेश भी उनको पूरा सम्मान देते हैं. रविदार मेहरोत्रा के रोड शो में भी अखिलेश के एक तरफ रविदार थे तो दूसरी तरफ अनुराग भदौरिया. कहने की बात नहीं कि टीवी हो, डिजिटल हो या कोई भी प्रचार का माध्यम हो, सोशल मीडिया हो, अनुराग भदौरिया पूरी शिद्दत से सपा का साथ निभाते हैं. पार्टी ने भी उन पर भरोसा किया है. 

बसपा की साख डूबी

इस चुनाव में छवियों का कितना महत्व था, वह हमें बसपा के अंजाम से सीखना चाहिए था. अब, उसके पीछे कारण चाहे जो भी हो, लेकिन पिछले कुछ चुनावों (विधानसभा व लोकसभा) में ऐसे संकेत बेहद स्पष्ट हो चले थे कि बसपा बेमन से चुनाव लड़ रही है, आरोप यहां तक लगे कि बसपा तो भाजपा की बी-टीम है. हालांकि, इस लोकसभा चुनाव में मायावती ने जिस तरह शुरुआती टिकट वितरण किया, उससे लगा कि शायद वह अपनी खोयी हुई जमीन तलाश रही हैं, लेकिन अंतिम चरण के चुनाव आते-आते पता चल चुका था कि देर हो चुकी है. छवि या इमेज का खेल इसे कहिए या जो भी कहना चाहें. मायावती की राजनीति के ऊपर संदेह हो चुका था, उनकी साख डूब चुकी थी. उनके अपने चाहनेवालों ने भारी संख्या में उनके साथ को छोड़ा, क्योंकि वह हताश हो रहा था. वह जान रहा था कि जमीन पर संघर्ष करने के लिए उसके पक्ष से कोई नहीे है. 19 फीसदी से सीधा 10 फीसदी के अंदर वोट पाने वाली पार्टी बनी बसपा को आत्मचिंतन की सख्त दरकार है. अगर आनंद ने कमान अपने हाथ ली और फिर से वैसे ही तेवर दिखलाए, जब उनकी बुआ ने उनसे सारे दायित्व ले लिए, तो फिर बसपा के लिए शायद ही कुछ बच पाए. उसे बिल्कुल नए तरीके से अपना जनाधार खोजना होगा. 

भाजपा के लिए भी यही बात कही जा सकती है कि उसको भी अपने अंदर झांक कर देखना होगा. कहां तो वह 80प्लस का दावा कर रहे थे, कहां जनता ने तीन दर्जन के अंदर ही सीटों पर समेट दिया. भाजपा के अति-आत्मविश्वास के साथ भीतरघात की भी खबरें आ रही हैं. भाजपा को जल्द ही उनको खोजकर उनका इलाज करना होगा, वरना घाव गंभीर हो जाएगा. विधानसभा चुनाव को भी बस ढाई साल ही बचे हैं.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि …. न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है. ]

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