भाजपा को कोई भी तब तक नहीं हरा सकता, जब तक हिंदुओं का खासा हिस्सा उसे वोट नहीं देता

हाल में, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में मोदी ने हवा का रुख भांपने के लिए जो बैलून उड़ाया, उस पर पहली ‘सेकुलर’ प्रतिक्रिया यही रही होगी- ‘आपके लिए कोई चांस नहीं है! मोदी जी को शुभकामनाएं अगर वे सोचते हैं कि मुसलमानों को यह याद दिलाकर वे उनके वोट खींच लेंगे कि वे पसमांदा (पिछड़े) हैं और दबंग अशरफ उनका शोषण कर रहे है।’

थोड़े समय के लिए सेकुलरवादियों की यह सोच सही हो सकती है, लेकिन जातिवाद और उसके आधार पर सामाजिक भेदभाव इसके भुक्तभोगियों के अंदर उग्र प्रतिक्रिया पैदा करता है। किसी समय इस आह्वान पर अनुकूल जवाब भी मिल सकता है। भाजपा लंबे खेल खेलती रही है।

हाल के किसी चुनाव में उसने मुस्लिम उम्मीदवार को- कम-से-कम मजबूत उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। पर गौर करें कि उसने मप्र में स्थानीय निकाय चुनाव में कितनी बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा किया। वहां भाजपा के 92 मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं। वार्डों की बड़ी संख्या उनकी है, जिनमें उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवारों को हराया।

अगर आप मोदी-शाह की भाजपा के विरोधी हैं तो इन बातों की अनदेखी करके अपना ही नुकसान कर सकते हैं। लोकसभा समेत दूसरे महत्वपूर्ण चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देना भाजपा के लिए अच्छा विचार हो सकता है, अगर हिंदू वोटों पर उसकी पकड़ को कोई चुनौती नहीं मिलती हो तो। तब उसके दोनों हाथों में लड्डू होंगे।

एक तो वह प्रतीकात्मक और संख्याबल के लिहाज से भी इस आरोप का खंडन कर सकेगी कि वह मुस्लिम-मुक्त है, जो कि आज का सच है। दूसरे, मुस्लिम वोट का छोटा हिस्सा भी अगर उसकी ओर मुड़ जाता है, तो वह विपक्ष को कहीं और गहराई में दफन कर देगा। मोदी के विरोधी अगर मुस्लिम वोटरों की बाड़ाबंदी करते हैं तो मोदी का हिंदू आधार और मजबूत होगा।

कहा जाएगा कि देखिए, ये लोग सेकुलर होने का दावा करते हैं, मगर इन्हें सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक की चिंता है। और अगर वे इसकी चिंता नहीं करते तो मुस्लिम वोटों के भी छिटकने का खतरा है। यही तो बिछाया हुआ जाल है। इसके अलावा, कांग्रेस और कई राज्यों में फैली पार्टियां अगर इससे परहेज भी करती हों, मगर नई मुस्लिम पार्टियां, असदुद्दीन ओवैसी, बदरुद्दीन अजमल- दूसरे राज्यों में उभरने वाली ऐसी और पार्टियां- इससे परहेज नहीं करेंगी। इसकी वजह यह है कि वे केवल मुस्लिम वोट की ही उम्मीद करती हैं। और यह इन वोटों के मूल दावेदारों कांग्रेस, एनसीपी, सपा, राजद या टीएमसी से इन्हें अपनी ओर खींचने का मौका बन सकता है।

मुस्लिम वोटों का बिखराव केवल भाजपा को ही फायदा पहुंचाएगा। ऐसा भी समय आ सकता है जब केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग को चिंता सताने लगे कि हैदराबाद में उभरा नया प्रतिद्वंद्वी वहां न कदम रख दे, जबकि वह खुद यूडीएफ गठबंधन के अनुशासन से बंधी है और कांग्रेस की ओर से यह डर बढ़ रहा है कि उसे मुस्लिम समर्थक के रूप में देखा जा रहा है।

नई सियासी चुनौती
मोदी को वही चुनौती दे सकता है जो हिंदू-मुसलमान को साथ ला सके। हिंदुओं को हिंदू, न कि बिखरे जातीय समूहों के रूप में। उसे हिंदुओं को समझाना पड़ेगा कि हमवतनों से ‘परायापन’ राष्ट्रहित के लिए भी नुकसानदायक है।

गौर कीजिए कि तीन तलाक और हिजाब के मुद्दों पर उसकी प्रतिक्रिया क्या रही। इसकी पुनरावृत्ति आपको तब भी दिखेगी, जब मोदी सरकार बहुविवाह, तलाकशुदा को हर्जाना, अल्पसंख्यकों की संस्थाओं को विशेष दर्जा देने, मदरसों में पढ़ाई आदि मुस्लिम मसलों पर कदम उठाएगी।

कांग्रेस की वैचारिक उलझन सबरीमला मसले पर दिखी। केरल चंद उन राज्यों में शामिल है, जहां उसे अभी भी भाजपा का सामना नहीं करना पड़ता है, इसलिए उसके लिए मौका है। उसकी उलझन ये है कि वह सेकुलर झंडा उठाकर हिंदुओं को नाराज करने का जोखिम उठाए, या पुरानी परंपरा का समर्थन करे। उसने सबसे बुरा विकल्प चुना- कुछ मत कहो, कुछ मत करो। राहुल गांधी ने इस मसले में स्त्री-पुरुष समानता की बात की तो तमाम कांग्रेसी इधर-उधर देखने लगे।

मोदी ने अपने वैचारिक विरोधियों को धकेलकर ऐसे द्वीप पर पहुंचा दिया है, जो राजनीतिक जलवायु में परिवर्तन के चलते पानी के ऊपर उठते स्तर के कारण तेजी से सिकुड़ता जा रहा है। भारत के मुसलमान भी उनके साथ वहां खींच लिए गए हैं। 2014 के बाद के भारत में भाजपा को कोई भी तब तक नहीं हरा सकता जब तक हिंदुओं का अच्छा-खासा हिस्सा उसे वोट नहीं देता। आदिवासी, दलित, यादव या ओबीसी के रूप में वोट देने का दौर खत्म हुआ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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